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कल्पसूत्र
मल
1॥ २४ ॥
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रुरु-सरभ-चमर-संसत्त-कुंजर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्तं, गंधव्वो-पवज्जमाणसंपुन्न-घोसं, निच्चं, सजल-घण-विउल-जलहर-गज्जिय-सद्दाणु-नाइणा देवदुंदुहिमहारवेणं सयलमवि जीवलोयं पूरयंतं, कालागुरु-पवर-कुंदुरुक्क-तुरुक्क| डझंत-धूव-वासंग-उत्तम-मघमघत- गंधुधुआ-भिरामं, निच्चा-लोअं, सेअं सेअप्पभं, सुर-वरा-भिरामं, पिच्छइ सा साओ-वभोगं, विमाण-वर-पुंडरीयं १२ ।।सू. ४४।।
तओ पणो पलग-वेरिंद-नील-सासग-कक्केयण-लोहियक्ख- मरगय-मसारगल्लपवाल-फलिह-सोगंधिय-हंसगब्भ-अंजण-चंदप्पह-वर-रयणे हिं महियल-पइठ्ठियं गगन-मंडलंतं पभासयंतं, तुंगं, मेरुगिरि-सन्निगासं, पिच्छइ, सा रयण-निकर-रासिं १३ ||| सू. ४५ ।। | सिहिं च सा विउ-लुज्जल-पिंगल-महु-घय-परिसिच्चमाण-निम- धगधगाइय
-जलंत-जालुज्जला-भिरामं तरतम-जोगजुत्तेहिं जाल-पयरेहिं अन्नुन्न-मिव अणुप्पइन्नं, पिच्छइ, सा जालुज्जलणग-अंबरं व कत्थइ पयंतं, अइवेग-चंचलं, सिहिं १४ ।। सू. ४६ ।।
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