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।। चौथा व्याख्यान ।।
फिर सिद्धार्थ राजा ने उन स्वप्न पाठकों को उनके गुणों की स्तुति कर के नमस्कार किया । पुष्पादि से उन्हें पूजा, फल, वस्त्रादि के दान से उनका आदर किया और खड़ा होने आदि से उनका सम्मान किया। अब वे पहले से बिछाये हुए आसनों पर बैठ गये। फिर सिद्धार्थ राजा त्रिशला क्षत्रियाणी को पड़दे में रखकर पुष्प तथा नारियलादि फलों को हाथ में लेकर (क्योंकि खाली हाथ से देवगुरू राजा तथा विशेष कर के निमित्तियों के सन्मुख न जाना चाहिये, फल से ही फल की प्राप्ति होती है) स्वप्न पाठकों को विशेष विनय से यों कहने लगा हे देवानुप्रियों ! आज त्रिशला क्षत्रियाणी वैसी शय्या में सोती जागती अर्थात् अल्प निद्रावस्था में इस प्रकार के गज, वृषभ आदि श्रेष्ठ चौदह स्वप्नों को देख कर जाग उठी । हे देवानुप्रियों ! इन श्रेष्ठ चौदह महास्वप्नों को मैं विचारता हूं कि वे कैसे कल्याणकारी और वृत्तिविशेष फल देनेवाले होंगे ? वे स्वप्नपाठक सिद्धार्थ राजा से उन स्वप्नों को अच्छी तरह मन में धारण किया। मन में धारण कर के वे उन स्वप्नों का अर्थ विचारने लगे । अर्थ का विचार कर के परस्पर विचार करने लगे और परस्पर विचार कर के अपनी धारण कर के, शंकावाली बातों को आपस में पूछताछ कर अर्थ को
बुद्धि से अर्थ को जान कर परस्पर अर्थ को
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