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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कल्पसूत्र हिन्दी दूसरा व्याख्यान अनुवाद 112711 ॐ पद हैं वे सब तूने ही प्राप्त किये हैं, क्योंकि तू अन्तिम तीर्थकर, प्रथम वासुदेव और चक्रवती होगा । मैं तेरे इस परिव्राजक वेष को वन्दन नहीं करता, किन्तु तू भावीकाल में अन्तिम तीर्थकर होनेवाला है इस अपेक्षा से मैं तुझे नमस्कार करता । हूं । इस तरह मरीचि की स्तुति करता हुआ भरत अपने स्थान पर चला गया । इधर मरीचि अपने भावी उत्कर्ष की बातें सुन कर हर्ष के आवेश में आकर त्रिपदी पछाड़ कर नृत्य करते हुए इस प्रकार गाने लगा प्रथमों वासुदेवोऽहं, मूकायां चक्रवर्त्यहं । चरमस्तीर्थराजोऽहं, ममाहो ! उत्तम कुलम् ।।1।। आद्योऽहं वासुदेवानां, पिता मे चक्रवर्तिनाम् । पितामहो जिनेन्द्राणां ममाहो ! उत्तम कुलम् ।।2।। अर्थ- मैं पहला वासुदेव बनूंगा, मूका नगरी में चक्रवर्ती बनूंगा और अन्तिम तीर्थकर बनूंगा इसलिए मेरा कुल सर्वोत्तम है । वासुदेवों में पहला मैं हूं, चक्रवर्तियों में मेरे पिता पहले हैं और तीर्थकरों में मेरे दादा पहले हैं। इसलिए मेरा कुल सर्वोत्तम Bहै। इस प्रकार कुल का मद करने से मरीचि ने नीच गोत्र कर्म बांध लिया । जो मनुष्य जाति, लाभ, कुल, ऐश्वर्य, बल, - रूप, तप और विद्या इनका अभिमान करता है उसे भवान्तर में ये वस्तु हीन प्राप्त होती हैं । अब भगवान के निर्वाण होने की पर भी मरीचि साधुओं के साथ ही विचरता है और उपदेश से अनेक मनुष्यों को प्रतिबोध कर मनियों को शिष्यतया समर्पण करता है । अर्थात् वैराग्य प्राप्त कर जो दीक्षा ग्रहण करना चाहता है उसे साधुओं के पास भेज देता है । अर्थ 0000 For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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