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श्री कल्पसूत्र हिन्दी
अनुवाद
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समय वह जंगल में काष्ठ लेने को गया था। मध्याह्न समय होने पर भोजन के वक्त उसके लिए भोजन आया । ठीक उसी समय दैवयोग से कितनेक साधु रास्ता भूल कर उस जंगल में भटक रहे थे। जब वे साधु उसके दृष्टिगोचर हुए तो उन्हें देख कर उसके मनमें बड़ी खुशी हुई और मन ही मन विचार करने लगा कि मेरे अहोभाग्य हैं जो इस समय यहां महात्मा पधारे हैं। बडे हर्ष और आदर सत्कार से नयसारने उन मुनियों को आहार पानी का दान दिया। भोजन किये बाद वह मुनियों को नमस्कार कर बोला- चलो महाभाग ! आपको मार्ग बतलाऊं । मार्ग चलते समय मुनियों ने उसे योग्य समझकर धर्मोपदेश द्वारा समकित प्राप्त करा दिया । अन्त समय नवकार मंत्र स्मरण करने पूर्वक मृत्यु पाकर वह दूसरे भव में सौधर्म देवलोक में पल्योपम की आयुवाला देव पैदा हुआ। वहां से चल कर तीसरे भव में मरीचि नामक भरतचक्रवर्ती का पुत्र हुआ। वैराग्य प्राप्त कर उसने श्री ऋषभदेव प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की और स्थविरों के पास एकादशांगी का अध्ययन किया। एक दिन ग्रीष्मकाल के ताप से पीड़ित हो विचारने लगा कि चिरकाल तक इस तरह संयम धारण करना अतिदुष्कर है। इस प्रकार कष्टमय जीवन बिताना मुझ से न बन सकेगा; परन्तु सर्वथा वेष परित्याग कर घर जाना भी अनुचित है। यह विचार कर उसने एक नूतन वेष निर्माण किया। यह समझकर कि साधु तो मन, वचन और काया के तीन दण्ड से रहित हैं किन्तु मैं वैसा नहीं हूं इसलिए मेरे पास त्रिदंडका चिह चाहिए. एक त्रिदंडक रख दिया। साधु द्रव्यभाव से मुण्डित हैं मैं वैसा नहीं हूं, यह समण्कर सिर पर चोटी
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दूसरा
व्याख्यान