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अवसर्पिणी में नवमे और दसमे तीर्थकर के बीच के समय में गृहस्थ ब्राह्मणादि की जो पूजा प्रवृत्ति हुई वह दसवां आश्चर्य हुआ । ये दश आश्चर्य अनन्त कालातिक्रमण के बाद इस अवसर्पिणी में हुए हैं । इसी प्रकार काल की समानता से शेष चार भरत और पांच ऐरावता में भी प्रकारान्तर से दश दश आश्चर्य समझ लेना चाहिये । इन दश आश्चर्या में से एक
सौ आठ का एक समय सिद्धिगमन, श्री ऋषभदेव प्रभु के तीर्थ में हुआ । हरिवंश की उत्पत्ति का आश्चर्य श्री शीतलनाथ ॐ प्रभु के तीर्थ में हुआ । अपरकंका गमन श्रीनेमिनाथ प्रभु के तीर्थ में, स्त्री तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथ के तीर्थ में और
असंयतिपूजा का आश्चर्य श्री सुविधिनाथ प्रभु के तीर्थ में हुआ है । शेष पांच उपसर्ग, गर्भहरण, अभावित परषदा, चमरेन्द्र
का ऊर्ध्वगमन और सूर्यचंद्र का मूल विमान से अवतरण वे श्री वीरप्रभु के तीर्थ में हए हैं। - यह भी एक आश्चर्य ही है कि जो अक्षीण हुए नाम गोत्र कर्म के उदय से अर्थात् पूर्व में बांधे हए नीच गोत्र कर्म *के शेष रहने के कारण और अब उसके उदय भाव में आने से भगवान श्री महावीर ब्राह्मणी की कुक्षि में अवतरे । यह में L नीच गोत्र प्रभु ने अपने सत्ताईस स्थूल भवों की अपेक्षा तीसरे भव में बांधा था । जिसका वृत्तान्त इस प्रकार है
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婚變聲男變慢
प्रभु के सत्ताईस भव पहले भव में पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में प्रभु का जीव नयसार नामक एक ग्रामाधीश का नौकर था । एक
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