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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kabatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कल्पसूत्र ॐ दूसरा हिन्दी भी व्याख्यान अनुवाद 112111 दूसरा व्याख्यान तीन समुद्र और चौथा हिमालय इन चारों के अन्ततक स्वामिभाव से धर्म के श्रेष्ठ चक्रवर्ती, अर्थात् धर्म के स्थापक। समुद्र में डूबते हुए प्राणियों को द्वीप के समान आधाररूप । अनर्थ का नाश करने वाले । कर्मो के उपद्रव से भयभीत * प्राणियों को शरणरूप । दुःखित मनुष्यों को आश्रयरूप, संसाररूप कुवे में पड़ते हुए प्राणियों को अवलंबनरूप । अप्रतिहत-जिसको संसार की कोई भी वस्तु रूकावट न कर सके ऐसे अस्खलित उत्तम प्रधान ज्ञान दर्शन को धारण करने वाले । घाति कर्मा को नष्ट करने वाले । राग द्वेष के विजेता । उपदेशादि का दान दे कर भव्य प्राणियों को जीवनदान द्वारा जिलानेवाले । संसाररूप समुद्र को तैर कर सेवकों को तैरानेवाले । स्वयं तत्व को जानकर और दूसरों को तत्वबोध करने वाले । स्वयं कर्मपिंजरे से मुक्त हुए और दूसरों को मुक्ति दाता, स्वयं सर्व पदार्थों को जानने और देखनेवाले, तथा कल्याणकारी, अचल, रोग रहित, अनन्त वस्तु विषयक ज्ञानस्वरूप, अन्त के अभाव से क्षय रहित, बाधा तथा पुनरागमन से रहित, सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए, भयको जीतनेवाले ऐसे श्री जिन भगवंत को नमस्कार हो । इस प्रकार सर्व जिनेश्वरों को नमस्कार कर शकेंद्र श्री वीरप्रभु को नमस्कार करता है । श्रमण भगवंत श्री महावीर जो पूर्व के तीर्थंकरों द्वारा कथन किये हुए और जो सिद्धिगति नामक स्थान 6000 ) For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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