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मेघकुमार का दृष्टांत एक समय प्रभु राजगृह नगर में पधारे थे । उनकी देशना सुनकर श्रेणिक राजा और धारणी रानी का पुत्र मेघकुमार प्रतिबोध को प्राप्त हुआ । उसने बड़ी कठिनाई से माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर अपनी स्त्रीयों को त्याग कर दीक्षा ग्रहण की । शिक्षा देने के लिए प्रभु ने उसे स्थविर मुनियों को सौंपा । एक दिन उपाश्रय में क्रम से मुनियों का संथारा करने पर मेघकुमार का संथारा सबके बाद, द्वार के निकट आया । रात को मात्रा-लघुनीति के लिए आते-जाते मुनियों की चरणरज से उसका संथारा भर गया । अतः उसे सारी रात निद नहीं आई । उस वक्त उसने विचारा कि 'कहां वह सुखशय्या और कहां यह धूल से भरा संथारा । इस तरह जमीन पर लेटने का दुःख मुझ से कब तक सहन होगा ? मैं तो सुबह भगवान को पुछकर अपने घर चला जाऊंगा।' ऐसा विचार कर प्रातःकाल प्रभु के पास आया । प्रभु ने उसे मीठे वचनों से बुलाया
और कहा वत्स ! तूने रात को ऐसा दुर्ध्यान किया है । वह उचित नहीं है । नरकादि के दुःखों के सामने यह दुःख क्या 2 शक्ति रखता है ? वैसा दुःख भी प्राणियों ने अनेक सागरोपम तक बहुत दफा सहन किया है । कहा भी है कि-अग्नि में
प्रवेश कर मर जाना अच्छा हैं, शुद्ध कर्म से मृत्यु पाना श्रेष्ठ है पर ग्रहण किया व्रत और शील भंग करना अच्छा नहीं है । इस चारित्रादि कष्ट का आचरण तो महान फल के देनेवाला होता है । तूंने स्वयं ही धर्मभाव से पूर्वभव में कष्ट सहन किया था उसी से तुझे यह अवसर मिला है । तूं अपने पूर्वभवों का वृत्तान्त सुन ? इस से तीसरे भव पहले
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