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श्री कल्पसूत्र
हिन्दी
अनुवाद
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उस समय शक्र नामक सिंहासन का अधिष्ठायक देवताओं का स्वामी कान्ति आदि गुणों से युक्त हाथ में वज्र धारण करनेवाला, पुरंदर अर्थात् दैत्यों के नगरों को विदारण करनेवाला, शतक्रतु-कार्तिक सेठ के भव में श्रावक की पांचवी प्रतिमा (अभिग्रह विशेष तप) सौ दफा धारण करने से इंद्र का शतक्रतु नाम पड़ा है । कार्तिक सेठ का वृत्तान्त इस प्रकार है- पृथ्वीभूषण नगर में प्रजापाल नामक राजा था और कार्तिक नामक सेठ था । उस सेठने श्रावक की सो प्रतिमा धारण की थी इस से वह शतक्रतु नाम से विख्यात हो गया था । एक दिन महिने महिने पारना करने वाला वहां पर एक गैरिक नामक संन्यासी आ गया । कार्तिक सेठ को वर्ज कर सब नगर निवासी उस के भक्त बन गये । यह जान कर गैरिक को कार्तिक पर रोष आया । एक दिन गैरिक को राजाने भोजन के लिए निमंत्रण दिया । गैरिक बोला- यदि कार्तिक सेठ भोजन परोसे तो मैं आप के वहां भोजन करूंगा । राजा बोला- ऐसा ही होगा। राजा ने बुलाकर कहा कि - तुम हमारे घर पर गैरिक को भोजन करा देना । कार्तिक बोला राजन् ! आप की आज्ञा से कराऊंगा । भोजन के समय कार्तिक ने गैरिक तापस को भोजन परोसा । उस वक्त उसे लज्जित करने के लिए गैरिक ने अपनी नाक पर अंगुली रख कर घिसी । उस समय कार्तिक ने विचारा कि यदि मैंने प्रथम से दीक्षा ले ली होती तो मेरा यह अपमान क्यों होता ? इस प्रकार वैराग्य प्राप्त कर कार्तिक सेठ ने एक हजार और आठ वणिक पुत्रों के साथ श्री मुनिसुव्रतस्वामी के पास दीक्षा ग्रहण की। तदनन्तर द्वादशांगी पढ़ कर बारह वर्ष तक चारित्र की आराधना
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व्याख्यान