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श्री महावीर प्रभु का जीवन चरित्र
सुषमसुष्मा
ग्रीष्मऋतु का चौथा मास था, आठवां पक्ष था, अर्थात् आषाढ़ मास का शुक्लपक्ष । उस आषाढ़ मास की शुक्ला छठ के दिन अर्धरात्रि के समय बीस सागरोपम की लंबी स्थितिवाले महान् विजयवाले पुष्पोत्तर नामक पुंडरीक अर्थात् श्वेत कमल के समान श्रेष्ठ महाविमान से देव संबन्धी आयु भव, गतिनाम कर्म, स्थिति को पूर्ण कर के अन्तर रहित व्यव कर इसी जंबूद्वीप में, जिसमें रूप, रस, गंधादि समस्त पदार्थो की हानि होती है ऐसे अवसर्पिणी काल में.. नामक चार कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण वाला पहला आरा बीत जाने पर सुषमा नामक तीन सागरोपम प्रमाणबाला दूसरा आरा बीत जाने पर, और सुषमादुःपमा नामक दो कोटाकोटी सागरोपम प्रमाणवाला तीसरा आरा बीत जाने पर और दुःषमसुषमा नामक चौथा आरा बहुतसा व्यतीत हो जाने पर अर्थात् कुछ शेष रहेन पर तात्पर्य कि बैतालिस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण चौथे आरे की स्थिति है, उसमें चौथे आरे के 75 वर्ष और साढ़े आठ महिने शेष रहने पर श्री वीरप्रभु का अवतार हुआ है । बहत्तर वर्ष की श्री वीरप्रभु की आयु थी अतः श्री वीरप्रभु के निर्वाण बाद तीन वर्ष और साढ़े आठ महिने व्यतीत होने पर चौथे आरे की समाप्ति होती है। इस से प्रथम जो वैयालिस 42000
हजार वर्ष कहे हैं वे इक्कीस हजार वर्ष प्रमाणवाले पांचवे और छठवें आरे सम्बन्धी समझना चाहिये ।
प्रभु का देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षी में आना और चौदह स्वप्नों का देखना ।
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