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रहना है इससे हम बीमार आदि के लिए ग्रहण करेंगे । वह गृहस्थ कहे कि-चातुर्मास तक लेना वह बहुत है तब पर वह लेकर बालादि को देना । परन्तु जवान साधु को न देना ।
ता.क. माह विगय बिलकुल त्याज्य है मघ (शहद), मक्खन, मद्य (शराब) और मांस, मनुष्य मात्र के लिये * त्याज्य है।
छट्ठा चातुर्मास रहे हुए साधुओं में वैयावच्च-सेवा करने वाले मुनि ने प्रथम से ही गुरुमहाराज को यों कहा हुआ हो कि-हे भगवन् ! बीमार मुनि के लिए कुछ वस्तु की जरूरत है ? इस प्रकार सेवा करने वाले किसी मुनि A के पूछने पर गुरू कहे कि-बीमार को वस्तु चाहिये ? चाहिये तो बीमार से पूछो कि-दूध आदि तुम्हें कितनी विगय , की जरूरत है ? बीमार के अपनी आवश्यकतानुसार प्रमाण बतलाने पर उस सेवा करनेवाले मुनि को गुरू के पास
आकर कहना चाहिये कि बीमार को इतनी वस्तु की जरूरत है । गुरू कहे-जितना प्रमाण वह बीमार बतलाता है, उतने प्रमाण में वह विगय तुम ले आना । फिर सेवा करनेवाला वह मुनि गृहस्थ के पास जा कर मांगे । मिलने पर सेवा करनेवाला मुनि जब उतने प्रमाण में वस्तु मिल गई हो जितनी बीमार को जरूरत है तब कहे कि बस
करो, गृहस्थ कहे-भगवन् ! बस करो ऐसा क्यों कहते हो ? तब मुनि कहे -बीमार को इतनी ही जरूरत है. * इस प्रकार कहते हुए साधु को कदाचित् गृहस्थ कहे कि - हे आर्य साधु ! आप ग्रहण करो, बीमार के भोजन - करने के बाद जो बचे सो आप खाना, दूध वगैरह पीना । कचित पाहिसित्ति के बदले दाहिसित्ति
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