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श्रय में पालने में रहा हआ ही ग्यारह अंग पढ़ गया । फिर जब वह तीन साल का हुआ तब उसकी माता ने राजसभासमक्ष विवाद में अनेक खाने की चीजें और खिलौने आदि से बहुविध ललचाया तथापि उसकी कुछ भी चीज न लेकर
नगिरि का दिया हुआ रजोहरण ले लिया । फिर निराधार हो माता ने भी दीक्षा ले ली । वज को भी गुरू ने दीक्षित किया । एक दिन आठ वर्ष के अन्त में उसके पूर्व भव के मित्र मुंभक देवोंने उज्जयिनी के मार्ग में वृष्टि विराम पाने - पर उसे कुष्मांड पाक की (पेठा पाक) भिक्षा देनी शुरू की परन्तु उन देवों की आंखें न टिम टिमाने के कारण उसे देवपिण्ड समझ कर और देवपिण्ड मुनियों को अकल्प्य होने से ग्रहण नहीं किया । इस से संतुष्ट हो उन देवोन ने उसे वैक्रियलब्धि दी । इसी प्रकार दूसरी दफा घेवर न लेने से देवों ने उसे आकाशगामिनी विद्या दी। उसी मुनिने पाटलीपुर में धन नामक शेठ द्वारा करोड़ धन सहित दी जाती हई उसकी रूक्मिणी नामा पुत्री को "जिसने साध्वियों के मुख से वज के गुण सुनकर यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं वज से ही ब्याह कराउंगी" प्रतिबोध देकर दीक्षा दी । यहां कवि कहता है कि जिस वजषिने बाल्यावस्था में ही सहज ही में मोहरूप समुद्र को एक घुट कर लीया उसे स्त्रीरूप नदी का प्रवाह कैसे भिगो सकता है ? वह वजस्वामी एक समय दुष्काल में संघ को पट पर कर बैठा कर सुकालवाली नगरी में ले गये । वहां पर बौद्ध राजाने जिनमंदिरों में O "पुष्पों देने का निषेध कर दिया था । पर्युषणों में श्रावकों के विनती करने पर आकाशगामिनी विद्याद्वारा में1 पुरी नाम से प्रसिद्ध
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