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________________ Shri Maharan Aradhana Kendra www.kobaith.org Acharya Shri Kalassagarsen Gyarmandie श्री कल्पसूत्र हिन्दी सातवां ॐ प्रभु ने पानी रहित छट्ट तप किया हुआ था, विशाखा नक्षत्र में चंद्र योग आने पर शुक्ल ध्यान के प्रथम के दो भेद - ध्याते हुए प्रभु को अनन्त अनुपम यावत् श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुआ । अब सब जीवों के भावों को देखते और जानते हुए भगवन्त विचरने लगे। भगवन्त का परिवार । पुरुषप्रधान अर्हन् श्रीपार्श्व प्रभु के आठ गण और आठ ही गणधर थे । एक वाचनावाले यतिसमूह को व्याख्यान अनुवाद 1110311 1जैन सम्प्रदाय में ज्ञान के पांच भेद हैं-पहला मतिज्ञान जिस से कि मनुष्य हर एक बात को विचार सकता है-समझ सकता है । दूसरा श्रुतज्ञान है जिस के द्वारा मनुष्य हर एक बात को कह सकता है और सुन सकता है । तीसरा अवविज्ञान है कि जिस के द्वारा मनुष्य पांचों इंद्रियों - से हजारों लाखों करोडों यावत् असंख्य योजनों पर रही हुई वस्तु को भी अपने ज्ञान बल से देख सकता है और जान सकता है । चौथा मनःपर्यव ज्ञान है जिस से मनुष्य को ऐसी शक्ति पैदा हो जाती है कि वह एक दूसरे के मन की बातों को भी जान लेता है । पाचवा केवलज्ञान है यह ज्ञान पहले चार ज्ञानों से अत्यंत निर्मल लोकालोकप्रकाशक और सर्व भावों को चाहे वो रूपी या अरूपी हों देखने और जानने की ताकत रखता है । इस से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं है । कुछ लोगों ने इसको ब्रह्मज्ञान माना है. कुछ मतावलंबिओंने इसको अलोकिक शक्ति माना है और कुछ शास्त्रकारों ने इसे योग शक्ति की पराकाष्ठा माना है । यह ज्ञान जिसको पैदा हो जाता है वो यथार्थवादी होता है. आप्त सर्वज्ञ कहा जाता है । उसके आगे लोकालोक की कोई चीज छानी नहीं रह जाती । सर्व ही तीर्थकर भगवंत घरबार छोडकर दीक्षा लेकर तपस्या कर के इस केवलज्ञान को हासिल करने की ही चेष्टा करते हैं । और जब उन्हें यह ज्ञान हासिल हो जाता है तभी वो संसार को मोक्ष का मार्ग बतलाते हैं । उनके कहे हुए मार्ग पर चलने वालों को भी आखीर जाकर केवलज्ञान होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है । For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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