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श्री कल्पसूत्र
छट्टा
हिन्दी
CE
व्याख्यान
अनुवाद
I
1196।।
ॐथा। उसे प्रतिबोध देकर वापिस आते हुए श्रीगौतमस्वामी वीर प्रभु का निर्वाण सुनकर मानो वज से हणे गये हों इस 23
प्रकार क्षणवार मौन होकर स्तब्ध रह गये । फिर बोलने लगे-"अहो आज से मिथ्यात्वरूप अंधकार पसरेगा ! LE कतीर्थरूप उल्लु गर्जना करेंगे तथा दुष्काल, युद्ध वैरादि राक्षसों का प्रचार होगा । प्रभो ! आपके बिना आज यह
भारतवर्ष राहू से चंद्र के ग्रस्त होजाने पर आकाश के समान है तथा दीपकविहीन भवन के समान शोभा रहित हो * गया । अब मैं किसके चरणों में नम कर बारंबार पदों पदा का अर्थ पूछूगा? हे भगवन् हे भगवन् ऐसा अब मैं किसको कहूंगा और मुझे भी अब आदरवाणी से हे गौतम ! ऐसा कहकर कौन बुलायेगा ? हां ! हां ! हां ! वीर !
यह आपने क्या किया? जो ऐसे समय मुझे आपसे दूर कर दिया !!! क्या मैं बालक के समान आपका पल्ला पकड़ र कर बैठता ? क्या मैं आपके केवलज्ञान में से हिस्सा मांगता? यदि आप साथ ही ले जाते तो क्या मोक्ष में भीड़
हो जाती ? या आपको कुछ भार मालूम होता था ? जो आप मुजे तज कर चले गये !! इस प्रकार गौतमस्वामी के मुख पर वीर ! वीर ! यह शब्द लग गया । फिर कुछ देर बाद-'हां मैंने जान लिया, वीतराग तो निःस्नेही होते हैं। यह तो मेरा ही अपराध है जो मैंने उस वक्त ज्ञान में उपयोग न दिया । इस एकपाक्षिक स्नेह को धिक्कार है ! अब स्नेह से सरा । मैं तो एकला ही हूं, संसार में न तो मैं किसी का हूं और न ही कोई यहां मेरा है, इस प्रकार सम्यक्तया एकत्व भावना भाते हुए गौतमस्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हो गया । "मोक्खमग्गपवण्णाणं, सिणेहो वज्जसिंखला । वीरे जीवन्तए जाओ, गोअमो ज न केवली ।।1।।"
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