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श्री कल्पसूत्र हिन्दी
छट्टा
व्याख्यान
अनुवाद
1183||
रहित तथा द्रव्यादि से रहित, छिन्नग्रंथ-सुवर्णादि कि ग्रंथि से रहित हुए । द्रव्य भावरूप मल के निर्गमन से पद निरूपमेय हुए, उस में द्रव्यमल-शरीर से उत्पन्न होनेवाला मैल तथा भावमल-कर्म से उत्पन्न होनेवाला मल
उन दोनों से रहित हुए । जिस तरह कांसी का पात्र पानी से मुक्त रहता है वैसे ही प्रभु भी स्नेहादि जल K से विमुक्त रहते है । शंख के समान रागादि से न रंगे जाने के कारण निरंजन हुए । जीव के समान सब * जगह स्खलना रहित गति करनेवाले, आकाश के समान निरालम्बन, वायु के समान अप्रतिबद्ध विहारी,
शरद ऋतु के जल के समान निर्मल, विशुद्ध हृदयवाले, कमलपत्र पर जैसे लेप नहीं लगता त्यों प्रभु को भी
कर्म लेप नहीं लगता । कछवे के समान गुप्तेंद्रिय, गेंडे के सींग के समान मात्र एकले ही, पक्षी के समान * परिवार रहित, भारंड पक्षी के समान प्रमाद रहित, भारंड पक्षी के युग्म का एक ही शरीर होता है परन्तु दो,
मुख होने से दो ही गरदन होती है, पैर तीन होते हैं, मनुष्य की भाषा बोलने वाला होता है, दोनों मुख से खाने की इच्छा होने से उसकी मृत्यु हो जाती है अतः वह अत्यन्त अप्रमादी सावधान रहकर जीता है । हाथी के - समान कर्मरूप शत्रुओं को हणने में समर्थ, वृषभ के समान अंगीकृत व्रतभार को वहन करने में समर्थ परिषहादिरूप पशओं से अजितसिंह के समान, मेरुपर्वत के समान अचल, समुद्र के समान गंभीर, हर्ष शोक के.
प्रसंगों में समान भावधारी, चंद्रमा के समान शीतल, सूर्य के समान देदीप्यमान तेजस्वी, पृथ्वी के समान * सहनशील, घी आदि से भली प्रकार सिंचित किये हुए अग्नि के समान तेज से जाज्वल्यमान हुए प्रभु को
SHURSHURSS
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