________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
4000 405004050040
www.kobatirth.org
तथा पैरों के मर्दन से, फिर पिशाचादि का रूप कर उस के अट्टहास्य से, सेर के रूप धारण कर नखों के विदारण आदि से, सिद्धार्थ और त्रिशला के रूपद्वारा करूणाजनक विलाप करने आदि से उसने अनेक अत्यन्त घोर उपसर्ग किये । सैन्य बनाकर प्रभु के चरणों पर बरतन रख नीचे अग्नि सुलगा कर रसोई करने से, चाण्डालों द्वारा प्रभु के कानों और भुजाओं की जड़ में तीक्ष्ण चोंचवाले पक्षियों के पिंजरे लटकाये, वे प्रभु को चौंच मार कर भक्षण करते हैं। फिर ऐसा पवन चलाया कि पर्वतों को भी उखाड़ फेंके, वह प्रभु को उछाल उछाल कर फेंकता है। गोल पवन चलाया जो प्रभु को चक्र के समान भ्रमाता है । फिर उसने प्रभु पर हजार भार प्रमाणवाला कालचक्र छोड़ा कि जिससे मेरूपर्वत के शिखर भी चूर्ण हो जायें । प्रभु उस से. हीचन तक जमीन में घुस गये। फिर उसने प्रभातकाल बनाकर कहा- हे देवार्य ! आप अभी तक क्यों खड़े हैं ? प्रभु तो ज्ञान से जानते थे कि अभी रात्रि बाकी है । फिर देवऋद्धि बनाकर कहा हे महर्षे ! आप को . स्वर्ग या मोक्ष की इच्छा हो तो मांग लो। इस से भी प्रभु को निश्चल देख उसने देवांगनाओं के हावभाव द्वारा उपसर्ग किया। इस प्रकार उसने एक रात्रि में बीस उपसर्ग किये, परन्तु उनसे प्रभु जरा भी विचलित न हुए । यहां कवि कहते हैं कि "बलं जगद्ध्वंसन रक्षणक्षमं, कृपा च सा संगम के कृतागसि । इतीव संचिंत्य विमुच्य मानसं रूषेव रोष स्तवनाथ ! निर्ययौ ।।1।। हे प्रभो ! आप का बल जगत का नाश और रक्षण करने में समर्थ है तथापि अपराधी संगम देव पर जो आप की ऐसी दया रही इसी कारण मानो आप पर रोष करके
0 0 0 0 40 500 400
For Private and Personal Use Only
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir