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कहा कि हे महानुभावों ! नट का नाच देखना साधु को नहीं कल्पता । साधुओं ने सादर गुरू का वचन अंगीकार कर लिया। एक दिन फिर वे ही साधु बाहर से कुछ देर कर के आये पूर्ववत् गुरू के पूछने पर वे बोले-स्वामिन् ! आज हम रास्ते में नाच करती हुई एक नटनी को देखने खडे हो गए थे। गुरू बोले-हे महानुभावों ! उस दिन हमने तुम्हे नटका नाच देखना मना किया था। जब नट का नाच देखना मना है तब नटनी के नाच का तो स्वयं ही निषेध हो गया क्योंकि वह अधिक राग का कारण है। वे हाथ जोड़ कर बोले-महाराज! हमें यह मालूम नहीं था। अब न से हम ऐसा न करेंगे । यहां पर वे प्रथम तीर्थकर के साधु जड़ बुद्धि होने से नट का नाच निषेध करने पर नटनी 'का नाच निषेध नहीं समझ सके, परन्तु स्वभाववाले होने के कारण गुरू को सरल उत्तर दे दिया ।
( दूसरा दृष्टांत)
इसी प्रकार का एक दूसरा भी दृष्टांत दिया है-कुंकृण के किसी एक बणिक ने वृद्धावस्था में दीक्षा ली थी। एक दिन उस नये मुनि ने ईर्यावही के कार्योत्सर्ग में अधिक देर लगा दी। जब उसने कुछ देर के बाद कार्योत्सर्ग पारा तब गुरू महाराज ने पूछा कि इतनी देर ध्यान कर के तुमने क्या चिन्तवन किया ? वह • बोला- स्वामिन्! जीवदया का चिन्तवन किया। गुरू ने पूछा- जीवदया का चिन्तवन किस प्रकार का ? वह • बोला-भगवन् ! पहले गृहस्थावस्था में खेत में उगे हुए वृक्ष झाड़ी आदि को उखड़ कर मैं खेत बोता था तब
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