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इंद्र हाथ लगाते हैं । आकाश से देवता पंचवर्ण के पुष्पों की वृष्टि करते हैं, देवदुंदुभि बजाते हैं, वे अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार पालखी को उठाते हैं । फिर शक्रेंद्र और ईशानेंद्र उन बांहों को छोड़ कर प्रभु को चामर विझते हैं । इस प्रकार जब प्रभु पालखी में, बैठ कर दीक्षा लेने जा रहे हैं तब अनेकानेक देव देवियों से आकाशतल शरद ऋतु में पद्म सरोवर के तुल्य, प्रफुल्लित अलसी के वन समान कलियर के वन सरीखा चंपा के बगीचे सदृश तथा पुष्पित तिल के वन समान मनोहर शोभता था । निरन्तर बजते हुए भंभा, भेरी, मृदंग, दुंदुभि और शंखादि के नाद गगनतल में पसर रहे थे । उन निरन्तर बजनेवाले अनेक बाजों के सुन्दर शब्द सुनकर नगर की स्त्रियां अपने कार्यो को छोड़ कर वहां आती हुई अपनी विविध प्रकार की चेष्टाओं से मनुष्यों को आश्चर्यचकित करती थी। कहा भी है स्त्रियों को तीन चीज अधिक प्यारी होती है एक तो केश, दुसरा काजल, और तीसरा सिंदूर ऐसे ही वे तीन वस्तु भी प्यारी होती हैं एक दूध, दूसरा जमाई और तीसरा बाजा । उन की चेष्टायें निम्न प्रकार थी -कितनी एक बालिकायें शीघ्रता के कारण अपने गालों पर काजल के अंक और आंखों में कस्तूरी डाल कर आई । कितनी एक जल्दी की उत्सुकता से चित्त उधर होने से गले के आभूषण पैरों में और पैरों के आभूषण गले में पहन आई । कितनी एकने गले का हार तगड़ी की जगह पहना हुआ था और तगड़ी हार की जगह पहनी थी। गोशीर्ष चंदन पैरों पर लगाया हुआ और मेंहदीं शरीर पर लगाई थी। कोई अर्ध स्नान किये भीने ही कपड़ों से पानी टपकाती आ रही थी। कोई खुले केश पगली सी हुई दौडती
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