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कुमारसंभव
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विष्णु के चक्र से निकली हुई चिनगारियाँ ऐसी जान पड़ती हैं, मानो उस राक्षस के गले में माला पहना दी गई हो। तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्च व्यापको महिमा हरेः।।7/71 भगवान् विष्णु की महिमा संसार में तब फैली जब उन्होंने ऊपर, नीचे और तिरछे पैर रखकर, तीनों लोकों को माप डाला। विष्णोर्हरस्तस्य हरिः कदाचिद्वेधास्तयोस्तावपि धातुराद्यौ।। 7/44 कभी शिव जी विष्णु से बढ़ जाते हैं, कभी ब्रह्मा इन दोनों से बढ़ जाते हैं और कभी ये दोनों ब्रह्मा से बढ़ जाते हैं। कम्पेन मूर्ध्नः शतपत्र योनिं वाचा हरिं वृत्र हरणं स्मितेन। 7/45 शिव जी ने ब्रह्माजी की ओर सिर हिलाकर, विष्णुजी से कुशल मंगल पूछकर, इन्द्र की ओर मुस्कुरा कर आदर किया।
अज
1. अजः-पुं० [न जायते नोत्पद्यते यः नञ्ज न+ अन्तेष्वपि दृश्यते' इति कर्तरिड,
उपपदसमासः] विष्णु, शिव, ब्रह्मा। यदमोधमपा मन्तरूप्तं बीजमज त्वया। 2/5 हे ब्रह्मन् ! आपने सबसे पहले जल उत्पन्न करके उनमें ऐसा बीज बो दिया, जो
कभी अकारथ नहीं जाता। 2. आत्मभुवः- पुं० [आत्मन्+भू+क्विप्] ब्रह्मा।
याम नन्त्यात्मभुवोऽपि कारणं कथं स लक्ष्य प्रभवो भविष्यति। 5/91 जो ब्रह्म तक को उत्पन्न करने वाला बताया जाता है, उस ईश्वर के जन्म और कुल को कोई जान ही कैसे सकता है। सोऽनुमन्य हिमवन्त मात्मभूरात्मजाविरहदुःखखेदितम्। 8/2 तब उन्होंने हिमालय से जाने की आज्ञा माँगी। कन्या को अपने से अलग करने में हिमालय को दुःख तो बहुत हुआ, पर उसने विदा दे दी। वचस्य वसिते तस्मिन्सर्ज गिरामात्मभूः।। 2/53
उनके कह चुकने पर ब्रह्माजी ऐसी मधुर वाणी बोले। 3. कमलासन:- पुं० [कमलमासनमस्य, विष्णोर्नाभिपद्मजात त्वात् स्यात्वम्]
ब्रह्मा।
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