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कुमारसंभव
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दिवृक्षवस्तामृषयोऽभ्युपागमन्न धर्मवृद्धेषुवयः समीक्ष्यते।5/16 . क्योंकि जो धर्म का जीवन बिताने में बढ़े-चढ़े होते हैं, उनके लिए फिर यह नहीं देखा जाता कि छोटे हैं या बड़े। विजिता नेत्र प्रतिघातिनी प्रभा मनन्य दृष्टि: सवितारमैक्षतः। 5/20 चकाचौंध करने वाले सूर्य के प्रकाश को भी जीतकर, वे सूर्य की ओर एकटक होकर देखती रहने लगीं। अथो वयस्यां परिपार्श्ववर्तिनी विवर्तितानञ्जननेत्रमैक्षत्। 5/51 इसलिए अपने बिना काजल लगे नेत्र पास बैठी हुई सखी की ओर घुमाकर, उन्होंने उसे बोलने के लिए संकेत किया। तेषां मध्यगता साध्वी पत्युः पादार्पितेक्षणा।। 6/11 जिनके बीच में अपने पति वशिष्ठ जी के चरणों की ओर निहारती हुई सती अत्रि। शैलः संपूर्णकामोऽपि मेनामुखमुदैक्षत। 6/85 हिमालय स्वयं तो इससे सहमत थे, पर फिर भी उन्होंने इसका उत्तर पाने के लिए मेना की ओर देखा। तस्याः सुजातोत्पलपत्रकान्ते प्रसाधिकाभिनयने निरीक्षयथ। 7/20 सिंगार करने वाली स्त्री ने पार्वती जी की नीले कमल जैसी बड़ी-बड़ी और काली-काली आँखों में। व्रीडादमुं देवमुदीक्ष्य मन्ये संन्यस्त देहःस्वयमेव कामः। 7/67 कामदेव ही उनकी सुन्दरता को देखकर टीस के मारे स्वयं जल मरा। वीसितेन परिवीक्ष्य पार्वती मूर्धकम्पमयमुत्तरं ददौ। 8/6 पार्वतीजी बस अपनी आँखें ऊपर और सिर घुमाकर यह जता देती, कि मैं आपकी सब बातें मानती हूँ। नन्दने चिरमयुग्मलोचनः संस्पृहं सुरवधूभिरीक्षितः।। 8/27 नन्दन वन में अप्सराएँ महादेव जी की इस कला को बड़े चाव से निहारा करतीं। आकुलालकमरंस्त रागवान्प्रेक्ष्य भिन्न तिलकं प्रियामुखम्। 8/88 संवारे हुए केश इधर-उधर छितरा गए थे और उनका तिलक भी पुछ गया था।
अपनी प्रियतमा के ऐसे मुख को देखकर प्रेमी भगवान शंकर मग्न हो उठे। 2. दृश :- भवा० पर० [दृश्यते, दृश्यति] दिखाई देना, देखना, दिखना।
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