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कुमारसंभव
567 पहले पार्वती जी की दोनों सखियों ने शंकर जी को प्रणाम किया और अपने हाथ से चुने हुए। कदाचिदासन्नसखी मुखेन सा मनोरथज्ञं पितरं मनस्वनी। 5/6 हिमालय तो पार्वती जी के मन की बात जानते ही थे। इसी बीच एक दिन पार्वती जी ने अपनी प्यारी सखी से कहलाकर। यथा तदीयर्न यनैः कुतूहलात्पुरः सखीनाम मिमीत लोचने। 5/15 कभी-कभी मन बहलाव के लिए अपनी सखियों के आगे उन्हें लाकर, वे उन हरिणों के नेत्रों से अपने नेत्र मापा करती थीं। सखी तदीया समुवाच वर्णिनं निबोध साधो तवचेत्कुतूहलम्। 5/52 तब पार्वती जी की सखी उस ब्रह्मचरी से बोली-हे साधु, यदि आप सुनना ही चाहते हैं, तो मैं बताती हूँ। रात्रिवृत्तमनु योक्तुमुद्यतं सा प्रभात समये सखीजनम्। 8/10 जब इनकी सखियाँ इनसे रात की बातें पूछने लगीं। त्वं मया प्रियसखी समागता श्रोष्यतेव वचनानि पृष्ठतः। 8/59 मैं तुम्हारे पीछे आकर तुम लोगों की बात उस समय सुनता हूँ, जब तुम अपनी सखियों के साथ बैठकर बातें करती हो।
आश्रम
1. आश्रम :- पुं०, क्ली० [आ+श्रम्+घञ्] आश्रम।
विवेश कश्चिज्जटिलस्तपोवनं शरीर बद्धः प्रथमाश्रमो यथा। 5/3 गठीले शरीर वाला एक जटाधारी ब्रह्मचारी उस तपोवन में आया, वह ऐसा जान पड़ता था मानो साक्षात् ब्रह्मचर्याश्रम ही उठा चला आ रहा हो। आश्रमाः प्रविशदग्धेनवो बिभ्रति श्रियमुदीरिताग्नयः। 8/3 लौटकर आती हुई सुन्दर गौओं से और हवन की जलती हुई अग्नि से, ये आश्रम
कैसे सुहावने लग रहे हैं। 2. तपोवन :-आश्रम।
नवोट जाभ्यन्तरसंभृतानलं तपोवनं तच्च बभूव पावनम्। 5/17 वहाँ नई पर्णकुटी में सदा हवन की अग्नि जलती रहा करती थी। इन सब बातों से वह तपोवन बड़ा पवित्र हो गया था।
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