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रघुवंश
शत्रुओं को उखाड़कर उन्हें फिर जमाते समय यह नियम तोड़ दिया।
अनित्याः शत्रवो बाह्या विप्रकृष्टाश्च ते यतः । 17/45
यह सोचकर कि बाहरी शत्रु तो सदा होते नहीं और होते हैं, भी तो दूर रहते हैं। उत्खात शत्रु वसुधोपतस्थे रत्नोपहारैरुदितैः खनिभ्यः । 18 / 22
शत्रु विनाशक पुत्र ने सारी पृथ्वी से शत्रुओं को उखाड़ फेंका और रत्न, खनिज उपहार में प्राप्त किया।
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8. सपत्न : - [ सह एकार्थे पतति पत्+न, सहस्य सः ] शत्रु, विरोधी, प्रतिद्वन्द्वी । जनपदे न गदः पदमादधावभिभवः कुत एव सपत्नजः । 9/4
रोग भी उनके राज्य की सीमा में पैर न रख सके, फिर शत्रुओं के आक्रमण की तो संभावना ही कहाँ थी।
न च सपत्न जनेष्वपि तेन वागपरुषा परुषाक्षरमीरिता । 9/8
क्रोधित होने की तो बात ही दूर है, उन्होंने अपने शत्रुओं को भी कोई कठोर शब्द नहीं कहा।
ध
धनु
1. इष्वास : - [ इष् + उ + आस: ] धनुष ।
राममिष्वासनदर्शनोत्सुकं मैथिलाय कथयांबभूव सः । 11/37
तब ठीक समझकर विश्वामित्र जी ने जनकजी से कहा कि राम भी धनुष देखना चाहते हैं ।
2. कार्मुक - [कर्मन् + उकञ ] धनुष ।
प्रजार्थसाधने तौ हि पर्यायोद्यतकार्मुकौ । 4/16
ये दोनों धनुष ही बारी-बारी से प्रजा की भलाई किया करते हैं ।
शमिताधिरधिज्यकार्मुकः कृतवान् प्रतिशासनं जगत् । 8/27
जब उन्हें धीरज हुआ और उनका शोक कम हुआ, तब वे धनुष बाण लेकर सारे संसार पर एक छत्र राज्य करने लगे।
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स्थाणुदग्धवपुषस्तपोवनं प्राप्त दाशरथि रात्तकार्मुकः । 11/13 जिस तपोवन में शिवजी ने कामदेव को भस्म किया था, वहाँ जब सुंदर शरीर वाले राम, धनुष उठाए हुए पहुँचे ।