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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनशतक । कभी देखनमें नहीं आई इसलिये आश्चर्यजनक है । अथवा सम्पूर्ण संसारी प्राणी आपके चरणकमलोंके सन्निकट आकर आपके चरणकमलोंके प्रभारूप तीर्थमें स्नान करते हैं परन्तु यहां देवाद्वारा आप ही स्नान कराये गये । यह भी बड़ा आश्चर्य है । अथवा आप ऐसे महा पुरुष, भला जलसे कैसे स्नान कर सकते हैं परन्तु देवोंने जलसे ही आपका स्नान कराया यह भी बड़ा आश्चर्य है ॥ ६३ ॥ अनन्तरपादपुरजः। तिरीटघटनिष्टयूतं हारीन्द्रौघविनिर्मितम् । पदे स्नातः स्म गोक्षीरं तदेडित भगोश्विरम्।६४। तिरीटेति--तिरीटानि मुकुटानि तान्येव घटाः कुम्भाः तिरीटघटाः तैर्निष्ठ्यूतं निर्गमितं तिरीटघटनिष्ट्यूतम् । देवेन्द्रचक्रधरादिमुकुट घटनिर्गतम् । हारि शोभनम् । इन्द्रौघविनिर्मितं देवेन्द्रसमितिविर. चितम् । इन्द्राणामोघः इन्द्रौघः तेन विनिम्मितं कृतं इन्द्रौघविनिर्मितम् । पदे पादौ । स्नात:स्म स्नातवन्तौ । गोक्षीरं रश्मिपयः । अथवा पदे पदनिमित्तं स्नातः स्म स्नातवन्तौ गोक्षीरम् । तदा स्नानानन्तरं सुरेन्द्रैः प्रणामकाले । ईडित पूजित । भगो: भगवन् । चिरं अत्यर्थ सुष्ठुइत्यर्थः। किमुक्तं भवसि हे भगवन् ईडित स्नानकाले ते पदे गोक्षीरं स्नातः स्म । किं विशिष्टं गोक्षीरं तिरीटघटनिष्ठ्यतं हारीन्द्रौघविनिर्मितम् ॥ ६४ ॥ हे भगवन् ! हे पूज्य ! जब आपका अभिषेक हो चुका और सब लोगोंने आपके चरणकमलोंको प्रणाम किया उस समय इन्द्र चक्रवर्ती आदि उत्तम पुरुषों के मुकुटरूपी घटसे For Private And Personal Use Only
SR No.020405
Book TitleJin Shatakam Satikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Jain
PublisherSyadwad Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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