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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६० www.kobatirth.org स्याद्वादग्रन्थमाला | हे प्रभो धर्मनाथ ! जो आपके प्रति नम्रीभूत होते हैं उनके आप रक्षक हैं, अनेक राजा महाराजा आपकी सेवा करते हैं । आप अविनश्वर हैं, जन्ममरणजरारहित हैं, और अज्ञानरूपी पापको नाश करनेवाले हैं । हे प्रभो ! आप मेरे स्तोत्रोंसे पूजित हुये हो और अनन्त विभूतिके देनेवाले हो इसलिये मेरी रक्षा कीजिये ।। ५७ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरजः । मानसादर्शसंक्रान्तं सेवे ते रूपमद्भुतम् । जिनस्योदयि सत्त्वान्तं स्तुवे चारूढमच्युतम्॥ ५८॥ मानसेति मनः एव मानसं चित्तमित्यर्थः गानसमेवादर्श: दर्पण: मानसादर्श: मानसादर्श संक्रान्तं प्रतिविम्बित मानसादर्शसंक्रान्तम् ! सेवे भजामि । ते तव । रूपं शरीरकान्तिम् । अद्भुतं ॰आश्चर्यभूतम् । जिनस्य त्रैलोक्यनाथस्य । उदगि उदयान्वितम् । सत: शोभनस्य भावः सत्त्वं, सत्त्वस्यान्तं अवसानं परमकाष्ठा सत्त्वान्तम् । स्तुवे वन्दे । च समुन्धये । आरूढं अध्यारूढं, अच्युतं अहीनं अक्षरम् च समुच्चयार्थः । जिनस्य रूपं सेवेऽहं स्तुवे च किंविशिष्ट रूपं मानसा! दर्शकान्तम् । पुनरपि किंविशिष्टं अद्भुतं उदधि सत्त्वान्तमारूढं . अच्युतमिति परमभाक्तिकस्य वचनम् ॥ ५८ ॥ 1 : afa ! क्यनाथ ! आपके शरीरकी कान्ति बड़ी ही आयजनक है, शोभाकी तो पराकाष्टा है विनाश रहित है ( उसमें कोई किसी तरह की कमी नहीं है ) सदा उदयरूप तथा वृद्धिरूप है और मेरे चित्तरूपी दर्पण में For Private And Personal Use Only
SR No.020405
Book TitleJin Shatakam Satikam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Jain
PublisherSyadwad Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages132
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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