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॥ सतरहनदी ॥
(१७)
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सुरमद्दल कंसालो । मऊरिय मद्दल सुव जए पणवो । सुरनादि नंद तूरो पत्नणे तू नंदि जिणनाहो ॥
॥दोहा॥ तत घन सुषिरेशनधे। वाजिन चोविधवाय जगतनलीनगवंतनी। सतरमएसुखदाय॥१
॥ राग मधु माधवी ॥ तूं नंदिया नंद बोलत नंदी। चरण क मल जंतु जगत्रय बंदी। ज्ञान निरमल वा चत मुख वेदी । त्रिवली वोले रंग अतिही नंदी तं० ॥१॥नेरी गयण वाजंती। कुम ति त्यजंती । प्रन्न नक्ति पसायें अधिक गा जंती। सेवे जिन जै जणावंती । शावंती जैन सासन । जयवंती निरदंती। उदय सं घ परि परिवदंती । तूं०॥ २ ॥ सेवि नवि क मधु माधवी आखें इन फेरी । नविक न फेरी पनणंती। शंकई नाई साधु सतर मी पूज वाजिन सब । मंगल मधुर धुनि कहती तूं० ॥३॥ - ॥ इति वाजिब पूजा ॥ १७ ॥
॥राग धन्यासी॥
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