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॥नं० श्व० पू०॥
१५७
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॥काव्य ॥ दुरितदाव घनातप वारणं । सकलनाव विकासनकारणं ॥ जगतिन्नव्य नवोदधि तार णं । जिनगणं स्नपयाम्य मलै ऑलैः ॥१॥
झी श्रीअर्ह परमात्मन्यो निंतानंतज्ञान श क्तिभ्यः प्रणतसकल सुरासुरेंद्र वृंद विहित नक्तिभ्यः कठिन कर्म शालमालो न्मूलन चरणेन्यो जन्मजरा मृत्युनिवारण कारणेच्यो नंदीश्वराष्टम द्वीपगत पूर्वीजन गिरिशिखर स्थ सिहायतन मंझनायमानेभ्यः श्रीरिषनान न चंदानन वारिषेण वर्षमाना निधानाष्ठो त्तरैकशत शाश्वत जिनेन्यो जलं यजामहे स्वाहाः इति प्रथमजल पूजा ॥ १ ॥
॥दोहा॥ द्वितीयपूज जिनराजकी । करऊ नक्तिन रसार ॥ वरसुगंध दुव्य करी। तरऊसिं
धु संसार ॥१॥ ॥ मेघवरसैनरी पुप्फवादलकरी एचाल ॥
नक्तिधरी नविजन पूजमहाराजकुं। एह वरगंध व्यं सदाई ॥ विमल घनसार चंदन सरसमृगमदा। कुंकमें कर विलेपन मुदाई न.
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