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॥ न० श्व० पू०॥
॥ढाल ॥
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इण ही पूरब दक्षिणासा । पश्चिम उत्तर दिश चउपासा ॥ चतुरंजन गिरिसुख माधारी। चारणसुर विद्याधर चारी ॥२॥
॥ उल्लालो॥ धरचारि निजदुति नरविनिर्जित सजल जलधर घनघटा । वलिचतुर शीति सहस्त्र योजन तंगता धरता स्फुटा ॥ इणप्रवर अं जन सिखरि सिखरे शाश्वता जिनमंदिरा ॥ चउसंख्य सुंदर कनककलसो। पमधरा जग सुखकरा ॥२॥
ढाल ॥ इकइक अंजनगिरि चउपासा । चउपक्क रिणी प्रगट प्रकासा ॥ विस्तर इगलख योज नसारा । तासुमांहि इक इक्काउदारा ॥ ३ ॥
॥उल्लालो॥ इकइक उदारा सहस चउसठि योजनोन तता कुला ॥ जिनराज मंदिर मंमिता सऊ चंद्ध किरण समुज्वला । दधिमुख धराधरदी र्घिका प्रतिविदिशि दोयदोय रतिकरा। दश सहसयोजन उन्नताधर उदय करुणा सणवरा
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