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॥वि० स्था० पू०
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पारा हो न० ॥ ६ ॥ पच्चरकाण विरति न हि एहमें । येव्रम्हव्रत उपगाराहो न० ॥स कल सुरासुर किन्नर नरवर । धरीय नगति हितकाराहो न० ॥७॥ व्रम्हचरिज व्रतधरन रवरके । प्रणमैंचरण उदाराहो न०॥ दशमें अंगेजणियों नरवर्मा । नरपति गण साधा राहो न० ॥८॥ व्रम्हचरिजनत पाल लह्यो पद । जिनहर * जयकारा हो न० ॥ ९ ॥
॥काव्य ॥ सग्गा पवग्गग्ग सुहपयस्स । सुनिम्मला णंत गुणालयस्स ॥ सच्च्या नसण नूसगस्त णमोहि सीलस्स अदूसणस्स ॥ ९॥ ज्ञात्री ब्रम्हचर्याय नमः १२ इति छादशपदे श्रीत्र म्हचर्य पूजा ॥ १२ ॥
॥दोहा॥ करम निरजरा हेतु है । प्रवर किया गुण खाण ॥ जिनशासन नीस्थितिरही किरिया रूपें जाण॥ १॥ नवन मांहि किरियामही । सकल शुछ विवहार ॥ प्रवरनाण दरसण त णों। शुधकिरिया सिणगार ॥२॥ ॥ राग मालवीगौझी सब शरतिमथन०धूपं ॥
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ॐ भव तारा हो।
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