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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3) अनर्थदंड विरमण व्रत :- जीवन निर्वाह के लिए जो पाप किये जाते हैं वे अर्थदंड कहलाते हैं और सिर्फ मौजमजा के लिए जो पाप होते हैं वे अनर्थदंड के पाप कहलाते हैं । जैसे-भोजन , स्नान आदि करना अर्थ दंड का पाप है तो नाटक, सिनेमा , टी.वी. आदि का पाप अनर्थदंड का पाप कहलाता है । 295. गोचरी :- गो अर्थात् गाय ! चरी = चरना ! जिस प्रकार गाय जंगल में चरती है तब ऊपर-ऊपर से थोड़ा-थोड़ा घास खाती है और फिर आगे बढ़ती है, परंतु गधा जब चरता है तब घास को उखाड़कर ही खा जाता जैन साधु की भिक्षा को गोचरी कहते हैं । वे भी अनेक घरों से थोड़ीथोड़ी भिक्षा ग्रहण करते हैं । इसलिए उस भिक्षावृत्ति को भी गोचरी कहते हैं | 296. गुणस्थानक :- आत्मा के विकास की कुल चौदह भूमिकाएँ steps हैं, इन्हें गुणस्थानक कहते हैं | इनके नाम इस प्रकार हैं 1) मिथ्यात्व गुणस्थानक 2) सास्वादन गुणस्थानक 3) मिश्र गुणस्थानक 4) अविरत गुणस्थानक 5) देशविरति गुणस्थानक 6) प्रमत्त गुणस्थानक 7) अप्रमत्त गुणस्थानक 8) अपूर्वकरण गुणस्थानक 9) अनिवृत्तिकरण गुणस्थानक 10) सूक्ष्म संपराय गुणस्थानक 11) उपशांत मोह गुणस्थानक 12) क्षीण मोह गुणस्थानक 13) सयोगी गुणस्थानक 14) अयोगी गुणस्थानक । 297. गर्भगृह :- जैन मंदिर का वह मुख्य स्थान, जहाँ मूलनायक भगवान की प्रतिष्ठा की जाती है । उसे गभारा भी कहते हैं | 298. ग्रंथि :- राग - द्वेष की गाँठ । गाढ़ मिथ्यात्व के उदय के कारण आत्मा में रही हुई राग - द्वेष की अभेद्य ग्रंथि जिसका भेद करना बहुत ही कठिन है । सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय इस ग्रंथि का भेद अवश्य करना पड़ता है | G280 - For Private and Personal Use Only
SR No.020397
Book TitleJain Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherDivya Sanesh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size11 MB
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