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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___135. आयंबिल :- जिस तप में छ विगई , हरि वनस्पति तथा सूखे मेवे आदि सभी प्रकार की स्वादिष्ट वस्तु का त्याग होता है और सिर्फ नीरस आहार दिन में एक ही बार, एक ही बैठक में लिया जाता है, उसे आयंबिल कहते हैं। 136. आकाश प्रदेश :- आकाश द्रव्य का अविभाज्य अंश । 137. आकाश :-खाली जगह, अवकाश | 138. आक्रोश :- क्रोध । 139. आक्षेपिणी कथा :- ऐसी धर्मकथा जिससे श्रोताओं को तत्त्व के प्रति आकर्षण हो । ___140. आगम :- जैन धर्म के मुख्य आधारग्रंथ आगम कहलाते हैं । ये आगम कुल 45 हैं - 1. ग्यारह अंग 2. बारह उपांग 3. दस पयन्ना 4. छह छेदसूत्र 5. चार मूल सूत्र 6. नंदी - अनुयोगद्वार । ___ 141. आचार्य :- जैन शासन के तीसरे पद पर प्रतिष्ठित । जो स्वयं पंचाचार का पालन करते हैं और दूसरों से करवाते है । 142. आतप नामकर्म :- इस कर्म के उदय से स्वयं का शरीर ठंडा होने पर भी जो गर्म प्रकाश देता है । जैसे - सूर्यकांतमणि, सूर्यविमान । 143. आतापना :- सूर्य की गर्मी आदि को प्रसन्नतापूर्वक सहन करना । यह एक प्रकार का परिषह है | 144. आगार :- अपवाद, छूट | कायोत्सर्ग और पच्चक्खाण में कई छूटें रखी जाती हैं, उन्हें आगार कहते हैं । ___145. आत्मा :-- चेतना लक्षणवाला पदार्थ ! जिसमें ज्ञान - दर्शन आदि गुण रहे हुए हैं । 146. आदेय नामकर्म :- पुण्य प्रकृति का एक भेद । इस कर्म के उदय से व्यक्ति का बोला हुआ शब्द अन्य सभी को ग्राह्य बनता है । 147. आधाकर्मी :- साधु-साध्वी के लिए स्पेशियल बनाए हए आहार को आधाकर्मी आहार कहते हैं । 148. आयुष्यकर्म :- जिस कर्म के उदय से जीव एक शरीर में अमुक समय तक रह सकता है और जीता है । _149. आर्तध्यान :- अपने सुख - दुःख के विषय में जो दुर्ध्यान, अशुभ 5130 For Private and Personal Use Only
SR No.020397
Book TitleJain Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherDivya Sanesh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size11 MB
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