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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नय.निरूपणा जैन दर्शन में, नयों का अपना एक विशेष स्थान माना जाता है। अनेकान्त वाद और स्याद्वाद जैन दर्शन के प्राणभूत सिद्धान्त हैं। अनेकान्त का आधार है, नयवाद । स्याद्वाद का आधार है, सप्तभंगवाद । सप्तनय और सप्तभंगी प्रसिद्ध हैं । जैनदर्शन एकान्तवाद को स्वीकार नहीं करता। क्योंकि वह तो अनेकान्तवादी दर्शन है । अनेकान्तवाद वस्तु के स्वरूप को समझने का एक दृष्टिकोण है। उसे भाषा में अभिव्यक्त करता है, स्याद्वाद । अनेकान्त एक विचार है, उसे भाषा में अभिव्यक्त करना, स्याद्वाद है। अतः सप्तनय और सप्तभंग को समझना, परम आवश्यक है । बिना इनको समझे जैनदर्शन को नहीं समझा जा सकता। इन दोनों सिद्धान्तों के कारण ही जैनदर्शन का अन्य भारतीय दर्शनों में अपना एक विशेष स्थान बन गया है ! जैनदर्शन का अर्थ है-अनेकान्तवाद और स्याद्वाद । जैसे कि वेदान्त को अद्वैतवाद के नाम से पहचाना जाता है। सांख्य को प्रकृतिवाद के नाम से जाना जाता है । वैशेषिक दर्शन को परमाणुवाद के नाम से तथा पदार्थवाद के नाम से समझा जाता है। न्याय-दर्शन को प्रमाणवाद के नाम से जाना गया है। मीमांसा दर्शन की प्रसिद्धि कर्मवाद से है । वौद्ध दर्शन की प्रसिद्धि शून्यवाद तथा विज्ञानवाद के कारण मानी जाती है, वैसे ही जैन दर्शन की ख्याति भी अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के कारण है। जैन दर्शन के मर्मस्थल को समझने के लिए प्रमाण, नय और निक्षेप-तीनों के परिज्ञान की आवश्यकता है । प्रमाण का अर्थ है-वस्तु For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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