SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६० | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन अधिक विशाल है । क्योंकि वह लोकरूढ़ि के अनुसार, सामान्य और विशेष दोनों को कभी मुख्य एवं कभी गौणभाव से ग्रहण करता है। संग्रह केवल सामान्य को ग्रहण करता है । अतः उसका विषय नैगम से कम है। व्यवहार नय का विषय उससे भी कम है । क्योंकि वह संग्रह नय से गृहीत वस्तू में भेद डालता है । भेद डालने के कारण ही उसे व्यवहार नय कहा जाता है । इस प्रकार तीनों का विषय उत्तरोत्तर संकुचित होता जाता है। नैगम नय से सामान्य-विशेष और उभय का ज्ञान होता है। संग्रह नय से सामान्य मात्र का बोध होता है । व्यवहार नय लौकिक व्यवहार का अनुसरण एवं अनुगमन करता है। आगे के चार नयों का विषय भी आगे-आगे संकुचित होता जाता है । ऋजुसूत्र भूत और भविष्य की कालगणना को छोड़कर, वर्तमान की कालगणना की पर्याय को हो ग्रहण करता है । शब्द नय वर्तमानकाल में भी लिंग, कारक, संख्या और वचन आदि के कारण भेद डाल देता है । समभिरूढ व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के कारण भेद डालता है। एवंभूत नय तत्तत् क्रिया में लगी हई वस्तु को ही वह नाम देता है। सात नयों का दूसरी तरह भी विभाग किया जा सकता है । जैसे व्यवहार नय और निश्चय नय । एवंभूत नय निश्चय नय की पराकाष्ठा है । नयों का विभाग इस प्रकार भी होता है-शब्द नय और अर्थ नय । जिस विचार में अर्थ की प्रधानता हो, वह अर्थ नय । जिसमें शब्द की प्रधानता हो, वह शब्द नय । ऋजुसूत्र तक चार अर्थ नय हैं, और शेष तीन शब्द नय हैं। नयों का विभाग इस प्रकार भी हो सकता है-ज्ञान नय और क्रिया नय । पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानना, ज्ञान नय है। उसे अपने जीवन में उतारना, क्रिया नय है। अन्य भी प्रकार से विभाजन किया जा सकता है। नयों की परिभाषा १. जो विचार लौकिक रूढ़ि और लौकिक संस्कार का अनुसरण करे, उसे नैगम नय कहते हैं: २. जो विचार भिन्न-भिन्न बस्तु तथा व्यक्तियों में रहे, किसी एक सामान्य तत्व के आधार पर, सबमें एकता का प्रतिपादन करे, उसको संग्रह नय कहा जाता है। ३. जो विचार सग्रहनय के अनुसार,एकत्व रूप से ग्रहण की वस्तुओं में व्यावहारिक प्रयोजन के लिए भेद डाले, उसे व्यवहार नय कहा गया है। For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy