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करने के लिये पुनरुक्ति का आश्रय लेना पड़ा है। फिर एक ही विषय पर भिन्न-भिन्न आचार्यों ने विभिन्न शैली से लिखा है। अतः पुनरुक्ति भी प्रकारान्तर से को है । और यह सत्य है, कि उससे बचने का प्रयत्न नहीं किया। विषय को सुगम तथा सुबोध बनाने के लिये यह आवश्यक भी था ।
प्रस्तुत ग्रन्थ-ग्रन्थन को सुन्दर, मधुर एवं रुचिकर बनाने के लिए जो प्रयत्न साहित्यकार सुराना जी ने किया है, उसका समस्त श्रेय उन्हीं को दिया जाना चाहिये । अंकन, मुद्रण तथा चित्रण उन्हीं का है। अतः पुण्य-फल-भाक वे ही हैं।
जो व्यक्ति इस प्रकाशन में अर्थ-सहकारी हैं, उन्हें मैं, अपनी ओर से साधुवाद देता हूँ । पुस्तक के प्रचार का पुण्य उन्हें भी प्राप्त होगा। सद्विचारों के प्रसार में, किसी भी प्रकार का सहकार एवं सहयोग स्वागत योग्य ही है । इस पुस्तक में जो भी कुछ गुम्फित हुआ है, वह प्राक्तन आचार्यों का बौद्धिक प्रसाद है, जिसे पाने का हम सब को समान अधिकार
-विजय मुनि
जैन भवन मोती कटरा, आगरा १९६०, मार्च
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