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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन पदार्थ के सम्बन्ध को संनिकर्ष कहते हैं । संनिकर्ष के छह भेद हैं- संयोग, संयुक्तसमवाय, संयुक्त समवेत समवाय, समवाय, समवेत समवाय और अभाव । ईश्वरवाद न्यायदर्शन ईश्वरवादी हैं और वैशेषिक परमाणुवादी है। प्रारम्भ में यह ईश्वरवादी नहीं था, लेकिन कालांतर में इसने भी ईश्वर की सत्ता Dat स्वीकार कर लिया था । न्याय और वैशेषिक दोनों ही ईश्वर की सत्ता मानकर उसके द्वारा सृष्टि की रचना स्वीकार करते हैं । ईश्वर का सृष्टिकर्तृत्व अनुमान और आगम प्रमाण से सिद्ध करते हैं । ईश्वर को नित्य, व्यापक और सर्वज्ञ मानते हैं । आचार्य उदयन ने न्याय - कुसुमाञ्जलि में ईश्वर को जगत का कर्ता, धर्ता और हर्ता सिद्ध किया है- प्रबल तर्कों के आधार पर । कारणवाद न्याय दर्शन में कार्य के तीन कारण माने हैं- समवायि, असमवायि और निमित्त | जैसे पटरूप कार्य के प्रति तन्तु समवायि कारण है, तन्तु संयोग पट का असमवायि कारण है, और तुरी वेम आदि निमित्त हैं । समवायि कारण को उपादान कारण भी कहा गया है । न्याय दर्शन का कार्य-कारण-भाव बहुत ही प्रसिद्ध है । इस पर पर्याप्त बल भी दिया गया है । आत्मा के भेद स्वीकार किया न्याय एवं वैशेषिक दर्शन में, आत्मा की सत्ता को गया है । उसके दो भेद हैं- जीवात्मा और परमात्मा । परमात्मा एवं ईश्वर एक ही है । वह नित्य है, विभु है, अनन्त है, सर्वज्ञ है और सर्वशक्तिमान् भी है । इसके विपरीत जीवात्मा अनन्त हैं, विभु हैं, अल्पज्ञ हैं और प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न हैं । आत्मा का लक्षण किया है-ज्ञानाधिकरणमात्मा, अर्थात् आत्मा ज्ञान गुण का आश्रय है। कुछ दर्शनकार आत्मा का अणु परिमाण अर्थात् वट-कणिका मात्र मानते हैं । जेन स्वदेह परिमाण मानते हैं । धारावाहि ज्ञान न्याय और वैशेषिक दोनों ने ही प्रमाण को अस्वसंवेदी माना है । उन For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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