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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन है । नियतिवाद के अनुसार, समस्त भाव नियत हैं, उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। पुरुषार्थ को वहाँ अवकाश नहीं है। नियति में फेर-फार नहीं किया जा सकता। इस सिद्धान्त के अनुसार, सारा जगत् नियति-चक्र में है। उपनिषदों में तथा रामायण-महाभारत में भी नियतिवाद के प्रमाण उपलब्ध होते हैं । गोशालक से पूर्व भी यह सिद्धान्त था। इसका अधिक प्रचार गोशालक ने किया था। आजीवक पन्थ की स्थापना भी इसने की थी। __ आज उस परम्परा का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता । परन्तु जैन आगमों में तथा बौद्ध पिटकों में उस परम्परा के उल्लेख मिलते हैं। जैन परम्परा के अनुसार गोशालक भगवान महावीर का शिष्य था। बाद में वह विरोधी हो गया। वह अपने युग का एक घोर तपस्वी और कठोर क्रियाकाण्डी था। उसके अनुयायी उपासकों की संख्या, भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध के भी उपासकों से अधिक थी। __ यह गोशालक भी वेद के यज्ञ-यागों का विरोध करता था । अतः वह भी वेदविरोधी श्रमण परम्परा का एक नेता समझा जाता था। बुद्ध ने भी उसके मत का उल्लेख किया है। वह अपने युग का एक विचारक अवश्य था। ब्राह्मण-परम्परा के दर्शन-शास्त्र इस परम्परा के छह दर्शन हैं। इनका मूल वेद को माना गया है। अतः इन छह दर्शनों को वैदिक दर्शन भी कहा गया है। वेद को प्रमाण मानने वाले वैदिक होते हैं। षट्दर्शन किसी न किसी रूप में देद को प्रमाण मानते हैं । अतः इनको वैदिक कहने में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं हो सकती। विकास क्रम की दृष्टि से उनका क्रम इस प्रकार कहा जा सकता है१ न्याय दर्शन प्रवर्तक महर्षि गौतम २ वैशेषिक दर्शन " , कणाद ३ सांख्य दर्शन , कपिल ४ योग दर्शन , पतञ्जलि ५ मीमांसा दर्शन ___" , जैमिनि ६ वेदान्त दर्शन , बादरायण For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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