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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय दर्शनों का संक्षिप्त परिचय | २१ धिकारी, दिङ नाग के समान ही महान् प्रतिभाधर धर्मकीर्ति था। धर्मकीर्ति दिङ नाग के एक शिष्य ईश्वरसेन के शिष्य थे । धर्मकीर्ति के मुख्य ग्रन्थ, प्रमाणवार्तिक, हेतुबिन्दु और न्यायबिन्दु आदि हैं । बौद्ध परम्परा के छह महान् आचार्य थे-नागार्जुन, आर्यदेव, असंग, वसुबन्धु, दिङ नाग और धर्मकीर्ति । नागार्जुन और आर्गदेव-ये दोनों शून्यवाद के प्रवर्तक थे। असंग और वसुबन्धु-ये दोनों विज्ञानवाद के जनक थे। दिङ नाग और धर्मकीति-ये दोनों न्यायवाद के संस्थापक थे । इनमें भी सर्वाधिक गौरवपूर्ण स्थान, बौद्ध साहित्य में, वसुबन्धु का था। क्योंकि केवल वसुबन्धु को ही द्वितीय बुद्ध कहा गया है । प्रमाण-प्रमेय व्यवस्था आचार्य दिङ नाग ने कहा, कि वस्तु दो प्रकार की है। एक बाह्य जगत् में अस्तित्व रखने वाला, क्षणिक ‘स्वलक्षण' जो कि वैभाषिक के माने धर्मों के समान अनन्त हैं । वह सर्वथा ही विशेष तत्व है, अर्थात् दो या अधिक स्वलक्षणों में कोई सामान्य तत्व द्रव्य, अवयवी एवं जाति के रूप में नहीं है। प्रत्येक अपने में अलग तत्व है। वह स्वलक्षण समय की दृष्टि से स्थिरता नहीं रखता। देश की दृष्टि से विस्तार नहीं रखता। अनेक क्षणों में रहने वाला, कोई सामान्यधर्मी तत्व नहीं है। क्योंकि स्वलक्षण एक ही क्षण रहता है । यही परमार्थ सत् है, क्योंकिवही अर्थक्रियाक्षम है। जलाने का काम अग्नि के स्वलक्षण से हो सकता है, न कि सामान्य लक्षण अर्थात् मानस अग्नि से। दूसरा तत्त्व मानस है, अर्थात् जो केवल हमारे विचार में है। परन्तु बाह्य जगत् में नहीं है। यह सामान्य लक्षण है, जिसका अर्थ है, अनेक वस्तुओं को एक सामान्य या जाति के रूप में देखना। न्याय-वैशेषिक ने कहा था, कि सामान्य भी अनेक गायों में रहने वाला गोत्व या अनेक घटों में रहने वाला घटत्व भी एक बाह्यसत् है। दिङ नाग ने इसका घोर विरोध किया, उसने कहा, कि सामान्य एक मानस तत्त्व मात्र है, उसका बाहरी जगत् में कोई अस्तित्व नहीं, वह 'अतद् व्यावृत्ति' रूप है । अनेक गायों में रहने वाला गोत्व विधि रूप भाव पदार्थ नहीं, अपितु अनेक गायों की अगो (अतद्) अर्थात् गज-अश्व आदि से भिन्न होना (व्यावृत्ति) ही उस सामान्य का स्वरूप है, और यह अतद् व्यावृत्ति मानस धर्म है । अतः प्रमाण भी दो प्रकार का है-प्रमाण अर्थात् ज्ञान, विषय को ग्रहण करने वाला। For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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