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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतीय दर्शनों का संक्षिप्त परिचय | १७ दिवस, श्रमण एवं श्रमणी भी करते हैं । श्रावक तथा श्राविका भी करते हैं । उपासकों का जो समुदाय है, उसे तीर्थ अथवा संघ कहा जाता है । आज, उसे समाज कहते हैं। चार संप्रदाय जैन धर्म, दर्शन और संस्कृति के अनुसार साधना करने वाले उपासक चार सम्प्रदायों में विभक्त हैं-श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापन्थी। चारों में आचारभेद तो हैं, परन्तु विचार का भेद नहीं है। आचारभेद भी श्रमणों का परस्पर आचारभेद हैं, श्रावकों का नहीं । लेकिन श्रावक, श्रमणों के उपासक हैं, अतः उनमें भी आचारभेद हो गया है । कुछ परिवर्तन श्रावकों में जाति, प्रान्त, भाषा और परिवेश के कारण भी हुए हैं। सिद्धान्तभेद नहीं जिस प्रकार वेद-मूलक धर्म एवं दर्शनों में, सिद्धान्तकृत भेद. के दुर्ग खड़े हो गये हैं, वैसे विभेद जैन-परम्परा में नहीं हुए हैं। वेद-मूलक मीमांसा दर्शन में और वेदान्त दर्शन में, कितना विरोधी स्वर गूंजता है। कहाँ हिंसाप्रधान यज्ञ-याग और कहाँ ज्ञान-उपासना के शान्त-शीतल निर्झर । कहाँ परमाणुवादी वैशेषिक और कहाँ एक प्रकृतिवादी सांख्य । कहाँ वाद-जल्प एवं वितण्डावादी न्याय दर्शन और कहाँ एकान्त गिरिगुहावासी योग दर्शन । न समन्वय और न किसी भी प्रकार का परस्पर सन्तुलन। बुद्ध प्रमाणित बौद्ध धर्म एवं दर्शन में, सिद्धान्तकृत परस्पर भारी विभेद रहा है । वैभाषिक, सौत्रान्तिक, माध्यमिक और योगाचार में किसी भी प्रकार का सामञ्जस्य नहीं है। परस्पर विरोध ही नहीं, कटुता भी है। जैन परम्परा में, किसी भी प्रकार का सैद्धान्तिक भेद नहीं रहा है। श्वेताम्बर और दिगम्बरों में, तीर्थों को लेकर तो विरोध रहा है, लेकिन तीर्थंकरों के सम्बन्ध में विरोध नहीं है। मान्यताभेद का आधार, आचारभेद होता है। सिद्धान्तभेद का आधार, विश्वासभेद होता है । अहिंसा और अनेकान्त के कारण भी जैन परम्परा में समन्वय एवं सन्तुलन अधिक है। वैर, विरोध और कटुता नहीं है । मुख्य सिद्धान्त जैन दर्शन का सर्वतो मुख्य सिद्धान्त है, कर्मवाद। जीव और कर्म For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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