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१२ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशोलन
आचार्य हैं - पक्षधर मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, गदाधर भट्टाचार्य और मथुरा प्रसाद तथा जगदीश आदि प्रसिद्ध व्याख्याकार हैं ।
संयुक्त सम्प्रदाय
नवीन न्याय युग के बाद न्याय-वैशेषिक दर्शन का एक संयुक्त सम्प्रदाय अस्तित्व में आया था । इस काल में, न्याय-वैशेषिक पर संयुक्त ग्रन्थों की रचना होने लगी थी । इस युग के ग्रन्थों को प्रकरण ग्रन्थ कहा जाता है । इस युग के प्रसिद्ध प्रकरण ग्रन्थ हैं - शिवादित्य की सप्त पदार्थी, भासर्वज्ञ का न्याय सार, केशव मिश्र की तर्क भाषा, लोगाक्षि भास्कर की तर्क कौमुदी, अन्नं भट्ट का तर्क संग्रह और उसकी टीका दीपिका, विश्वनाथ पञ्चानन का भाषा परिच्छेद और उसकी विस्तृत टीका न्याय सिद्धान्त मुक्तावली आदि । तर्क संग्रह पर न्यायबोधिनी टीका और पदकृत्य टीका इसो संयुक्त सम्प्रदाय के प्रसिद्ध ग्रन्थ माने जाते हैं । न्याय-वैशेषिक वैदिक नहीं
यह सम्प्रदाय भी वैदिक नहीं है । क्योंकि यह वेदों को नित्य एवं अपौरुषेय स्वीकार नहीं करता । इसके अनुसार वेद, ईश्वर की वाणी हैं । इसके मत में शब्द अनित्य है । वैदिक ज्ञान में विश्वास होते हुए भी वैदिक यज्ञ एवं होम आदि क्रिया-काण्ड में विश्वास नहीं है । शब्द प्रमाण की अपेक्षा, इसमें अनुमान प्रमाण को सर्वाधिक महत्व दिया गया है । जबकि वेदमूलक सम्प्रदायों में शब्द प्रमाण का सर्वाधिक महत्व ही माना है । मीमांसा वेदान्त संप्रदाय
मीमांसा सम्प्रदाय तथा वेदान्त सम्प्रदाय - दोनों वेदमूलक हैं । वेद ही दोनों का आधार है । लेकिन दोनों एक-दूसरे के पूरक नहीं, विरोधी हैं । मीमांसा का जन्म धर्म जिज्ञासा से हुआ है, तथा ब्रह्म जिज्ञासा से वेदान्त का । वेदगत क्रिया-काण्ड मीमांसा का आधार है और उसका ज्ञान - काण्ड वेदान्त का । मीमांसा यज्ञ को धर्म मानता है, और वेदान्त ब्रह्म ज्ञान को । दोनों की स्थिति एवं सत्ता एक-दूसरे के विपरीत है, फिर भी यह तो सत्य है, कि दोनों का मूल वेद है । अतः यथार्थ अर्थ में, दोनों वेदमूलक सम्प्रदाय हैं । मीमांसा संप्रदाय
मीमांसा के प्रवर्तक हैं, महर्षि जैमिनि । मीमांसा सूत्रों की रचना, इन्होंने की थी । उसका नाम है- द्वादश लक्षणी । इसमें द्वादश अध्याय हैं । इस पर शबर स्वामी का शाबर भाष्य है । कुमारिल भट्ट ने इस पर श्लोक वार्तिक की रचना की है । प्रभाकर ने भी इस पर विशाल टीका
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