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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन पूर्ण स्थान है। यह ग्रंथ अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। साहित्य के समस्त अंगों और उपांगों पर विस्तार से लिखा गया है । नाट्य-शास्त्र के सिद्धांतों पर भी प्रकाश डाला गया है । इसमें काव्य, नाटक, कथा, गद्य और पद्य सभी प्रकारों का वर्णन किया गया है। साहित्य के किसी क्षेत्र को छोड़ा नहीं गया है । विश्वनाथ स्वयं भी कवि और नाटककार रहे हैं । ध्वनिवादी आचार्यों में विश्वनाथ की गणना की है। शब्द और अर्थ पर भी शब्द वत्तियों के द्वारा विचार किया गया है, साहित्य-दर्पण में । वाक्य स्वरूप साहित्य दर्पण के द्वितीय परिच्छेद में वाक्य के स्वरूप का निरूपण किया गया है । वाक्य उन पदों के समूह का नाम है, जिसमें योग्यता, आकांक्षा और आसत्ति का रहना अनिवार्य है। इस प्रकार वाक्य पदों का समूह है, और इस पद समूह में योग्यता, आकांक्षा और आसत्ति अनिवार्य रूप में रहती है। १. योग्यता-वह विशेषता है, जिसे पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध में किसी बाध अथवा विरोध का अभाव कहा जाता है। जैसे 'अग्निना सिञ्चति ।' आग और सींचना इन पदों के अर्थात् पदाथ! के परस्पर सम्बन्ध में, बाध तथा विरोध दोनों ही सर्वानुभव सिद्ध हैं। २. आकांक्षा-आकांक्षा का अर्थ है-जहाँ एक पद को दूसरे पद की जिज्ञासा रहती है। साकांक्ष पदों का समूह ही वाक्य बनता है, निराकांक्ष पदों से वाक्य नहीं बनता । जैसे कि गौरश्वः पुरुषो हस्ती । गो, अश्व, पूरुष और हाथी-इनमें किसी भी पद का अर्थ, दूसरे पद की आकांक्षा नहीं रखता है। ३. आत्ति- आसत्ति रहित पद भी वाक्य नहीं हो सकता। जैसे कि देवदत्तः"ग्रामम्""गच्छति"। अविलम्ब से उच्चरित पदों का वाक्य बनता है, विलम्ब से भाषित पदों की आसत्ति अर्थात् संनिधि नहीं हो सकती । अतः वह वाक्य नहीं बनता। मनोविज्ञान में, आकांक्षा का महत्व है । तर्कशास्त्र में योग्यता का महत्व है। भाषाविज्ञान आसत्ति को महत्व प्रदान करता है। मीमांसकों ने आकांक्षा को, नैयायिकों ने योग्यता को तथा वैयाकरणों ने आसत्ति को महत्त्व दिया है। साहित्य-दर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने नैयायिक मान्यता का अनुसरण करके योग्यता को प्रधानता दी है। काव्य-शास्त्रकारों ने शब्द और अर्थ का गम्भीर विचार किया है। सबने शब्द शक्ति को भी अपने ग्रन्थों में महत्व प्रदान किया है । For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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