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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५२ | जैन न्याय - शास्त्र : एक परिशीलन मम्मट ने काव्य प्रकाश में सभी विषयों को एक सुन्दर व्यवस्था दी । वस्तुतः मम्मट के समान व्यवस्थित और व्यावहारिक व्याख्या करने वाला उनके बाद कोई दूसरा नहीं हो सका । इस क्षेत्र में उनका व्यक्तित्व अद्वितीय रहा है । शब्द और अर्थ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मम्मट शब्दार्थ युगल को काव्य मानते हैं । पण्डितराज जगन्नाथ ने मम्मट के काव्य लक्षण का खण्डन किया है । नागेश भट्ट ने जगन्नाथ के मत का खण्डन किया है। उनका कहना है, कि जिस प्रकार काव्य सुना, यह व्यवहार होता है, उसी प्रकार काव्य समझा, यह व्यवहार भी होता है | समझना अर्थ का होता है, शब्द का नहीं । वेद आदि भी शब्दार्थ वृत्ति के प्रतिपादक हैं । अतः शब्द और अर्थ के उभय रूप को काव्य मानने में किसी प्रकार का दोष नहीं है । वस्तुतः देखा जाए तो दोनों का सम्बन्ध भी अनिवार्य है । अर्थ की स्थिति शब्द में निहित है। बिना शब्द के अर्थ का भास असम्भव है । अतः आचार्य मम्मट ने शब्द और अर्थ, उभय को काव्य कहा है । काव्य लक्षण निर्दोष है । शब्द और अर्थ दोनों मिलकर काव्य कहे जाते हैं । यही कारण है, कि मम्मट ने एक ओर तो ध्वनि को काव्य माना है, दूसरी ओर चित्र काव्य को भी काव्य पद प्रदान किया है। अपने से पूर्व होने वाले विद्वानों के विचारों का सार लेकर मम्मट ने जो लक्षण किया है, उसमें शब्द और अर्थ दोनों को समान स्थान मिला है, उपेक्षा नहीं हैं, किसी की । किन शब्दार्थ दोषरहित हो, गुणसहित हो और कहीं पर हो सकते हैं । निर्दोष, सगुण और सालंकार शब्दार्थ काव्य ध्वनि-काव्य अलंकार - शून्य भी कहा जाता है । भ काव्य - शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित आचार्य मम्मट ने काव्य को तीन विभागों में विभक्त किया है- उत्तम काव्य, मध्यम काव्य और अधम काव्य | उत्तम को ध्वनि, मध्यम को गुणीभूत व्यंग्य और अधम को चित्र कहा है । जहाँ वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ में अधिक चमत्कार हो, उसे उत्तम काव्य कहा जाता है । काव्य शास्त्र के विद्वानों ने उसको ध्वनि काव्य कहा है | अपने अभिमत के समर्थन में आचार्य मम्मट ने वैयाकरणों की सम्मति का उल्लेख इस प्रकार किया है - "बुधैः वैयाकरणैः प्रधानभूत-स्फोट-रूप व्यंग्य-व्यञ्जकस्य शब्दस्य ध्वनिरिति व्यवहारः कृतः ।" अर्थात् विद्वान् वैयाकरणों ने प्रधानभूत व्यंग्य रूप की अभिव्यक्ति कराने में समर्थ शब्द For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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