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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निक्षेप सिद्धान्त | १२५ समय वक्ता का अभिप्राय क्या है ? कौन-सा अर्थ संगत है ? यह निश्चित करने को ही निक्षेप कहा गया है । यही निक्षेप की परिभाषा है, यही उसका उपयोग है । परिभाषा और उपयोग के बाद ही प्रयोग किया जाता है । उसका प्रयोग करने से पूर्व उसके प्रयोजन को भी समझना आवश्यक हो जाता है । निक्ष ेप का प्रयोजन निक्षेप का प्रयोजन क्या है ? इसका समाधान श्वेताम्बर परम्परा के महान् दार्शनिक, महान् नैयायिक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने स्वविरचित सन्मति सूत्र के प्रथम काण्ड की छठी गाथा में इस प्रकार किया है " नाम, स्थापना और द्रव्य - ये द्रव्यास्तिक नय के निक्षेप हैं । भाव, पर्यायास्तिक नय की प्ररूपणा है, यही परमार्थ है ।" इन निक्षेपों का प्रयोजन यह है, कि लोक में प्रत्येक वस्तु का चार प्रकार से व्यवहार होता पाया जाता है। श्रद्धान आदि का और जीव आदि का द्रव्य एवं भाव के द्वारा निक्षेप होता है । अखण्ड तथा अनिर्वचनीय वस्तु को व्यवहार में लाने के लिए उसमें भेद - कल्पना करने को निक्षेप कहा गया है । यह भेद कल्पना, शब्द, ज्ञान और अर्थ रूप में की जाती है । शब्दात्मक व्यवहार के लिए ही वस्तु का नामकरण किया जाता है, जैसे कि वर्धमान महावीर और सन्मति आदि । ज्ञानात्मक व्यवहार के लिए स्थापना की जाती है । अर्थात्मक व्यवहार के लिए द्रव्य तथा भाव निक्षेप का कथन किया जाता है । द्रव्य, गुण, जाति और क्रिया आदि निमित्तों की अपेक्षा से शब्द का प्रयोग किया जाता है । निक्षेप का प्रयोजन है, शब्द का यथार्थ अर्थ समझकर उसका प्रयोग करना । निक्षेप - सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक शब्द के कम से कम चार अर्थ अवश्य ही होते हैं । वैसे एक शब्द के अधिक अर्थ भी हो सकते हैं, और होते भी हैं, किन्तु यहां पर निक्षेप का वर्णन अभीष्ट है, अतः शब्द कोष के अनुसार शब्द का अर्थ ग्रहण न करके यहाँ पर केवल निक्षेप सिद्धान्त के अनुसार ही शब्द का अर्थ ग्रहण करना है। एक बड़े ही महत्व का प्रश्न यह है, कि निक्षेप के सिद्धान्त का उद्देश्य क्या है ? और उसका जीवन में उपयोग क्या है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि अप्रस्तुत अर्थ का निराकरण करके प्रस्तुत अर्थ को बतलाना । जैसे किसी ने कहा, कि गुरु तो मेरे हृदय में है । यहाँ पर गुरु शब्द का अर्थ, गुरु व्यक्ति का ज्ञान For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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