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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नय - निरूपणा | ११३ नय शब्द के भेद से अर्थ का भेद करता है । वाचक के भेद से वाच्य में भेद स्वीकार करता है जैसे कि मेरुगिरि था, है और होगा अर्थात् रहेगा | शब्द नय के तीन भेद हैं- शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत। तीनों शब्द को प्रधान मानकर उसके वाच्य अर्थ का प्रतिपादन करते हैं । इसी कारण आचार्य ने तीनों को शब्द नय कहा है । शब्द नय काल, कारक, लिंग तथा वचन के भेद से अर्थ का भेद मानता है । मेरुगिरि का अस्तित्व तीनों काल में बताया गया है । अतः वे एक न होकर अनेक हैं । यहाँ कालकृत भेद है । मेरु एक नहीं, तीन हैंअतीत का अनागत का और वर्तमान का | लिंग भेद जैसे तटः तटी तटम् । वचन भेद जैसे दारा, परिग्रह, कलत्रम् आदि । शब्द नयाभास जो विचार काल आदि के भेद से शब्द के अर्थ में एकान्त भेद स्वीकार करता है, वह शब्द नयाभास होता है । शब्दनय पर्याय दृष्टि वाला है । वह द्रव्य को अमुख्य करके भिन्न-भिन्न पर्यायों को मुख्य मानता है । लेकिन शब्द नयाभास द्रव्य का सर्वथा निषेध करने के कारण नयाभास है । समभिरूढ नय जो विचार पर्याय वाचक शब्दों में, निरुक्ति-भेद से अर्थात् व्युत्पत्ति भेद से भिन्न अर्थ का कथन करने वाला है, समभिरूढ नय होता है । जैसे fa इन्दन होने से इन्द्र, शकन होने से शक और पुर का विदारण करने से पुरन्दर होता है । शब्द नय काल के भेद से शब्द का अर्थ भेद मानता है । समभिरूढ नय काल का भेद न होने पर भी पर्याय वाचक शब्दों के भेद से अर्थ-भेद मान लेता है | इन्द्र, शक्र और पुरन्दर एकार्थवाचक हैं, किन्तु व्युत्पत्तिभेद से भिन्न-भिन्न हैं । समभिरूढ नय अर्थ सम्बन्धो अभेद को गौण मानकर, पर्यायभेद से अर्थभेद मानता है । समभिरूढ नयाभास जो विचार एकान्त रूप में, 'पर्यायवाचक शब्दों के वाच्य अर्थ में भेद मानता है, वह समभिरूढ नयाभास है । समभिरूढ नय पर्यायभेद से अर्थभेद मानता है, परन्तु वह अभेद का निषेध नहीं करता । उसे गौण कर देता है । समभिरूढ नयाभास पर्यायवाचक शब्दों के अर्थ में रहने वाले अभेद का एकान्त निषेध करता है, और एकान्त भेद का कथन करता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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