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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नय-निरूपणा | ६५ नय तत्वालोक में नयों का विवेचन तर्क पद्धति से किया है । इतना विस्तार अन्य किसी न्याय-ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि आचार्य हेमचन्द्रकृत प्रमाण-मीमांसा में पूरा प्रमाण का भी वर्णन नहीं है । परीक्षामुख में इस नय विषय का स्पर्श भी नहीं किया । वाचक यशोविजयकृत जैन तर्क भा में नयों के वणन में वादिदेव का अनुसरण किया गया है। अध्यात्म-दृष्टि से नयों का कथन अध्यात्मदृष्टि से भी आचार्यों ने तथा ग्रन्थकारों ने नयों का कथन किया है । आस्तिक दर्शनों में आत्मा की सत्ता के विषय में, विवाद नहीं है । मतभेद है, उसके स्वरूप के सम्बन्ध में । अतः आत्मा के स्वरूप में जो विवाद है, उसे दूर करना भी परम आवश्यक होता है। आत्मा का ज्ञान अथवा आत्मा में ज्ञान तथा ज्ञान ही आत्मा है। इन वाक्यों के रहस्य को नय प्रयोग से हो समझा जा सकता है। आत्मा में ज्ञान, यहाँ आत्मा आधार है, और ज्ञान आधेय है । दोनों में आधार आधेय सम्बन्ध बनता है। आत्मा का ज्ञान यहाँ दोनों में भेद स्पष्ट है। लेकिन जब कहा जाता है, कि आत्मा ही ज्ञान अथवा ज्ञान ही आत्मा है, तब दोनों में अभेद सम्बन्ध सिद्ध होता है । जैन दर्शन में दो दृष्टि हैं-अभेद और भेद । अभिन्न और भिन्न । निश्चयनय तो अभेद को ग्रहण करता है, और व्यवहारनय भेद को ग्रहण करता है । निश्चयनय से आत्मा ज्ञान स्वरूप है। आत्मा और ज्ञान में भेद नहीं है । परन्तु व्यवहार नय को स्थिति भिन्न है। उस में पर-निमित्त से ज्ञान होता हैं । व्यवहार नय भेद की प्रधानता को स्वीकार करता है। निश्चयनय के भो अनेक भेद हैं, और व्यवहारनय के भेद-अनुभेद और उपमेद बहुत होते हैं । लेकिन निश्चय और व्यवहार मुख्य भेद हैं । अन्य दर्शन और नय अन्य दर्शनों में नयों का उल्लेख तो नहीं है। लेकिन वेदान्त में दो दृष्टियों का तो वर्णन उपलब्ध होता है। जैसे कि पारमार्थिक दृष्टि और व्यावहारिक दृष्टि । पहली दृष्टि से जगत् में एक ही सत्ता है, परम ब्रह्म । उसके अतिरिक्त शेष जगत् मिथ्या है, सत्य नहीं है । जगत् का नानात्व भी मिथ्या है। किन्तु वेदान्त सिद्धान्त के अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से जगत् सत् प्रतीत होता है । जगत नानात्व की प्रतीति माया के कारण ही होती हैं। अतः वेदान्त में दो दृष्टियों का प्रतिपादन किया गया है। For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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