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________________ जैन लिंग निर्णय // और व्यवहार सत्र सच्चा मानना नहीं और जिमरजगह मूल सूत्र का पाठ जैन प्रतिमा का अधिकार था वहां मन कल्पित अर्थ जोड़ कर लोगों को समझाने लगा भुणा का शिष्य रूपजी संवत्(१५६८) में हुवा उसका शिष्य संवत् ( 1578) की महाशद 5 के दिन जीवाजी नामे हुवा संवत् ( 1587) चैत्र बदी 4 उसका शिष्य वृद्धवरसिंह नामे हुवा संवत् (1606) में उसका शिष्यवरसिंहजी हुआ उसका शिष्य मंवत् (1646) में जमवंत नामे हवा उसके पीछे संवत् (1709 ) में वजरंगजी नामका लपकाचार्य हुआ श्रीसूरत का रहनेवाला घोरावीर जी की लड़की फुलांबाई का दत्तक पुत्र ( लवजी) बजरंगजी के पास से दिक्षा ली दिक्षा लेने के बाद दावर्ष के पीछे श्री दशवैकालिक सूत्र कटवा बांच्या बांच के गुरू से कहने लगा कि तुमतो साधू के आचार से भ्रष्टहो ऐसे कहने से उसी वक्त गुरू के साथ लडाई कर के उसी वक्त लवजीने लंपकमत और गुरू छोड़ के थोभण रिष वगेरह को साथ लेकर स्वमेव दिक्षा ली और मुख ऊपर पाटा बांधा उस लवजी का शिष्य सोमजी तथा कानजी हुवा उसके पास गुजरात का छींपा धरमदास दिक्षा लेने को आया वो कानजी का आचार भ्रष्ट जान कर स्वमेव साध बनगया और मुंह पत्नी मुंढे वांधी धरमदास को रहने का मकान ढूंढा अर्यात् फटा हुवा ( उजाड़) होने से लोगों ने उसका ढूंढक ऐसा नाम दिया लंपकमती कुंवरजी का चेला धरमसी, श्रीपाल और अमीपाल, ये तीन हुये उन्होंने भी गुरू को छोड कर खुद दिक्षा ली उस वक्त धरमतीने आठ कोटी पचखाण का पंथ चलाया वो गजरात देश प्रासेद्ध है धर्मदास छोरा का चेला धन्नाजी हवा उसका चेला भदरजी के चेले रधुनाथा, जेमल, और गुमानजी ये तीन हुवे उसका परिवार मारवाड़ तथा मालवा तथा गुजरात में विचरता है रघुनाथ का चेला भीकम तेरापंथी मुःख बंधा का पंथ चलाया है इसरीति से इनकी कुल उत्पत्ती श्री आत्मारामजी का बनाया हुया समगतसत्या उद्धार ग्रंथ में विशेष लिखी हुई है वाही
SR No.020393
Book TitleJain Ling Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages78
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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