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(ए४) म करो लखमीनी श्राश रे ॥ १७ ॥ वडा पुरुषने पूजे ज्यांहिं रे,न्यायनुं धन मंदिर मांहि रे॥प्रीति दीसे मांहो मांहि रे, लखमी, स्थानक त्यांहि रे ॥रणा लेणुं मागतो मीतुं बोले रे, कठिन बोलीने एब न खोले रे ॥ नूहुं कहेतां रीश जराय रे, दीवा नमां उठी जाय रे ॥२०॥ लजा जाये धननी हाणी रे,लांघणो म करो गुणखाणी रे॥धनधर्थे न लाघण कीजें रे, साहामाने जमवा दीजें रे ॥१॥ जमी लाघण करता केता रे, देणदारने जमवा न देता रे॥ अंतरायर्नु पाप अपार रे, कुःख ढंढणा सहि कुमार रे ॥२२॥ सुंदाल पणे होये जेह रे, जूंसुबोले न थाये तेह रे ॥ सुकुमाल बोलीजें जाई रे, तेह दांतनी करे रक्षा रे ॥ २३॥ कबि लदे ए॒ देवू थाय रे, जो विसरी बेहुने जाय रे ॥न वढे चार होये ज्यांहि रे, समा केश ते कांकशी मांही रे ॥२४॥ न्याय करतां जे नर चार रे, हश्ये धरता धरम विचार रे ॥ राग केष धरे नर कोय रे, बेहु जव ते पुःखीया होय रे ॥२५॥ सर्वनो न करे नर न्याय रे, सगा साहमीथी केम बूटाय रे॥न्याय करतां गुण ने बहुज रे, लोक माने जगमां सहुजरे
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