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( ४ )
काम न कहियें ईश ॥ ३१ ॥ एम सेवा कीजें महा राज, सेवा विण नवि चिंत्युं काज ॥ शत्रुजय मंत्री उद्धार, नृपसेवा विण नहिं निरधार ॥ ३२ ॥ इतु क्षेत्र सायरनी लहेर, होनिश जो मन या महे र ॥ योनि पोषण तूसे राय, दारिद्र पणुं तो दण मां जाय ॥ ३३ ॥ प्रधान शेव सेनापति पणुं, श्राव वक सूधो वरजे घणुं ॥ नवि चाले तो नहिं कोटवा ल, बंदी खाणो नहिं सिमपाल ॥ ३४ ॥ मंत्रिपएं जे नर च्यादरे, वस्तुपाल मंत्री परें करे ॥ प्रासाद प्रतिमा पुण्य नहिं पार, जिनधर्म याराध्यो सार ॥ ३५ ॥ ए सेवानो कह्या विचार, आजीविका कर जे नर सार ॥ वली नेद कहुं सातमो, रुषन कहे निद्रा निर्गमो ॥ ३६ ॥ सर्वगाथा ॥ ६३५ ॥ ॥ ढाल ॥ चेतन चेत रे प्राणीया ॥ ए देशी ॥ ॥ द घणा वे जीखना, चीवर लहे धन धान्य धारनूत यतितणो, दीये नूपति मान रे ॥ नेढ़ घणा बे जीखना ॥ ए कणी ॥ १ ॥ मि त्र माता बंधव जिस्या, नामें देवता शीश रे ॥ पाय नमे गज केशरी, आपे परम जगीश रे ॥ नेद० ||२|| नमस्कार करूं जीखने, तहारुं जगवती नाम
रे ॥
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