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(५४) रुषने निदा ॥ उचित सहुकोनुं साचववू, अणदी धे नवि वावरतुं ॥ ३० ॥ सर्वगाथा ॥ ४६५ ॥
॥दोहा॥ ॥अवसर जोर जोजन तणो, अतिथि पहोतो बार ॥ अण दीधे आ जिम्यो, गयो ते बहु नव हार ॥ १॥ सखि ए बावन अक्षरा, नण्यो का वन कंत ॥ एक ददो बाहिर गयो, ते ऊखंत ऊखंत ॥२॥ गज विघोर तटक करी, काल सम मुह वन्न ॥ एणी पेरें बप्पिहायकुं, ऊलो ते जलहर दिन्न ॥३॥ थोडं दान सोहामणुं, जे दीजें हरषेण ॥ पडी कालविलंबडे, शुंकीजें सहसेण ॥४॥ दान संव त्सरी जिन दिये, मिले पुरुष करीश्राश॥ जिन वरसे तिहां मेघ परें, को न जाय निराश ॥५॥ तुंगिया नगरी श्रावक जला, अनंग ज्वार कहाय ॥ उत्तम मध्यम सहु दिये,देतां नवि शंकाय ॥६॥ रायपसेणी केशी ऋषि, वाख्यो परदेशी राय ॥ पहेलु रमणिक थश्क र, प. अरमाणक म थाय ॥७॥
॥ चोपाश्नी देशी॥ ॥ रमणिक पुरुष थायो सहु कोय, देई जमतां पुण्य सबढुं होय ॥ विवेक नलो हैयामां धरे, सकल
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