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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३५) तार, शंख वजावे तेणें गर ॥ मुख ब्रूयुं ने शब्द सु पाय, बिन दीसे तेणें वाय ॥ २७ ॥ रूपी शब्द न दीगे जाय, वाजंतो सुपियें तिऐं गय ॥ जेह श्रातमा रूप, केम निकलतां दीसे रूप ||२८|| ते माटें तुं निश्चय जाए, बतो आतमा बे निरवाण ॥ ज्ञानी गु रुने वचनें वली, हु जैन मिथ्यामति टली ॥ २ ॥ ॥ दोहा ॥ ॥ मोढे माग्युं जे दिये, नापे राख्यो शरण ॥ पूढया उत्तर जे कहे, ए जग विरला त्रण ॥ १ ॥ बुद्धि शरीरें उपजे, दीधी केती होय ॥ जलमध्यें क छप वसे, तरी न जाणे सोय ॥ २ ॥ २७ ॥ ॥ चोपाईनी देशी ॥ ॥ बुद्धि नलि केशी कृषि तणी, निरता उत्तर दे नृप जणी ॥ समजावीने श्रावक कीध, वलि तेहने सुरपदवी दीध ॥ १ ॥ तेणें पुरुष त्रण भुवनें वडो, श्रमारी तो वजडाव्यो पडो ॥ जेणें नरें ए कुजीवने परम्म, समजाव्यो साचो जिनधर्म ॥ २ ॥ समकित धर्मनो जे दातार, न करी शके पाछो प्रतिकार ॥ कोडि गुणो उपकार हजार, पाठो वाली न शके नि रधार ॥ ३ ॥ परदेशी करे जक्ति उदार, धन धन For Private and Personal Use Only
SR No.020379
Book TitleHitshikshano Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhdas Shravak
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages223
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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