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( १६२ ) दरे || पैशाचक वाणिगनी कथा, जांखुं सोय सुखी में यथा ॥ ७ ॥ पैशाचक वाणिग कहेवाय, ए कदा जाड तलें थं मिल जाय || एक देव रहे तेणें काड, दुर्गंधी दुःख लागुं हाड ॥ ८ ॥ देव बलेवा करे उपाय, पण वाणिगने बढ्यो न जाय ॥ ऋणु जाह जस्सग्गो कही, नित्यें थं मिल जाये सही ॥५॥ सुर चिंते एणें लोपी लाज, उपाय करीने मारुं श्राज ॥ थं मिल वेगे वाणिग जिस्ये, मागो सुर तूठो कहे तिये ॥ १० ॥ जे तुं काम कहे ते करूं, खूंटे काम तो प्राण तुक हरुं ॥ गले पाश देवें या लियो, बेतस्यो नवि जाये वायो ॥ ११ ॥ सर्वगाथा ॥ १३७६ ॥ ॥ दोहा ॥
॥ तो कसे देतो मसे, उपर चढावे पाड ॥ वली विषधरने सेवायें, पण नवि सेवियें किराड ॥ १ ॥
गें बुंटेरा बेतरा, खुदी हुंबडो दोय ॥ लेइ हथी यार तस्कर हण्या, वणिग समो नहिं कोय ॥ २ ॥ वाणिक घर तस्कर गयो, बांट्यो कोगल ताम ॥ नाह क धोयो बापडो, लेइ न शक्यो तस दाम ॥३॥ नजा भूप अंगमा, ए मुख दोहला हुंत ॥ वैरी वींटी वा थियो, पूछें दाह देयं ॥ ४ ॥ सर्वगाथा ॥ १३८० ॥
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