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(१३६) वीर संयोगिक श्रेणिक नरो, नहिं काग मंसपञ्चका ण रे ॥सण॥३॥ एह अविरतिज देवता, नव जोगमा जाय रे ॥ जीव अभ्यास जेहवो करे, तेहवो आगो थाय रे ॥ सम्॥४॥ जेणें व्रत पालियां निर्मलां, आगलेंव्रत संयोग रे॥बत विना तुक नविगले, विष म कर्मना रोग रे॥ स०॥५॥तेणें व्रतनंग न कीजी ये, कदी जोहि खंमाय रे॥तेहिजागल व्रत पालि ये, जेम कर्म धोवाय रे ॥ स॥६॥ नियमी वस्तु श्रण सांजरे, धरी जो मुखमांहे रे ॥ तेह पानी नर नाखतो, व्रतनंग नहिं त्यांहि रे॥ स ॥७॥जोहि खाधा पली सांजरे, बीजे दिवसें पालेह रे ॥ मिला मुक्कड दे करी, आराधक होय तेह रे ॥ स०॥॥ वस्तु अचित्त संशय पडी, नर वावरे जेह रे॥तेहने जंग हुई सही, व्रतनो वली तेह रे ॥ स ॥ ए॥ घणोज मांदो ने जूतें दम्यो, यो परवश जंत रे॥सर्प मसे थनिग्रहें वली, पाले तो गुणवंत रे ॥सार॥ नवि पले तोहि नियमज तणो, नंग ते नवि होय रे॥ चार श्रागार कह्यां सही, सकल नियममा जोय रे॥ सम्॥११॥ सहेजें वातनो नंग करे, विराधक कह्यो तेह रे ॥ तेणें निज गुरु हेलीयो, दुःख पामतो देह
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