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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१३५) वली ॥ तेणें उद्यम मेवो नहिं, षन कवि एम बोल्यो सही ॥२७॥ सर्वगाथा ॥ ११५४ ॥ ॥दोहा॥ ॥ बोले साचुं मुखथकी, न्यायें मेले धन्न ॥ व्यव हार शुकि ज्यारें हवी, आहार शुद्धि तव जन्न ॥१॥ मन चोखू होये तदा, बोले मधुर अत्यंत ॥ लोक व बन होये तदा, समकित बीज वधंत ॥२॥ सम कित सूधुं राखतो, श्रीदेव गुरुने धर्म ॥ तत्त्व त्रण आराधतो, धोतो आठे कर्म ॥३॥ रुषल देव चर णे नमे, गुरु गौतम गुणवंत ॥ जैनधर्म थाराधीयें, लहियें सुख अनंत ॥४॥ एत्रण तत्त्व आराधियें, दूषण पांच टालेह ॥ जूषण पांचे श्रादरे, समाकित दृष्टि तेह ॥ ५॥ सर्वगाथा ॥ १२४ए ॥ ॥ ढाल ॥ चाल चतुर चंञाननी ॥ ए देशी ॥ ॥ समकित मूल सोहामणां, ग्रहे व्रत ते बार रे॥ तेहने देवता नित्य नमे, गति नहिंज असार रे ॥ समकित मूल सोहामणां ॥१॥ ए आंकणी ॥ बेदन नेदन नवि लहे, लहे दीरघ आय रे ॥ देव तणी गति ते लहे, वहेलो मुक्तिमां जाय रे॥ स ॥२॥ अविरतिनाम कर्मज जशे, नहिं अगड अजाण रे॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020379
Book TitleHitshikshano Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhdas Shravak
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages223
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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